उपन्यास से आप क्या समझते हैं? इसका मूल्यांकन औपन्यासिक तत्वों के आधार पर कीजिए।

“उपन्यास का मूल्यांकन औपन्यासिक तत्वों के आधार पर करना सर्वाधिक उचित है।” कथन स्पष्ट कीजिए-उपन्यास में लेखक अपने मन की बात को पाठकों के समीप रखता है। आधुनिक युग की साहित्य की मुख्य विधा उपन्यास ही है। उपन्यास को सर्वाधिक लोकप्रियता मिल रही है। उसमें काव्य के लगभग सभी गुण मिलते हैं।सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उपन्यास मानव मन के बहुत निकट है। यही कारण है कि उपन्यास का पाठक वर्ग बहुत है और आज यह सर्वथा सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठित है।

मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के प्रधान कवि हैं इसकी पुष्टि उनके काव्य साधना एवं काव्य प्रवृत्तियों के आधार पर कीजिए?

उपन्यास शब्द का उद्भव एवं विकास-

उपन्यास शब्द (उप) + (नि) उपसर्ग+अस (धातु) + अन्य (प्रत्यय) से निष्पन्न है जिसका संस्कृत में अर्थ है उपन्यासः प्रसादन। अर्थात वह साहित्य विधा जो पाठक का प्रसादन करती है। परन्तु हिन्दी उपन्यास शब्द उपन्यास प्रसादन एवं अंग्रजी नावेल के पर्याय का वाचक बनकर प्रयुक्त हो रहा है। अंग्रेजी में उपन्यास शब्द इटली भाषा के ‘नाविला’ जिसका अर्थ सूचना है, के पर्याय के रूप में प्रयोग हो रहा है। शिल्पे के अनुसार- “नाविल शब्द से एक नवीन प्रकार का प्रकथन प्रधान रचना का बोध होता है जिसमें आधुनिकता एवं सत्य दोनो की प्रतिष्ठा पाई जाती है।”

उपन्यास की परिभाषा

बेकर, अर्नेस्ट ए.- “उपन्यास को हम गद्यमय कल्पित आख्यान के माध्यम से की गयी जीवन की व्याख्या कह सकते हैं।”

एडिथ बर्टन – “उपन्यास एक ऐसी कल्पित आख्या है जिसमें सुन्दर कथानक एवं भली प्रकार चित्रित पात्र होते हैं। “

प्रेमचन्द – “मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मानता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।”

अज्ञेय – ” उपन्यास व्यक्ति के अपनी परिस्थितियों के साथ सम्बन्ध अभिव्यक्ति के उत्तरोत्तर विकास का प्रतिनिधित्व करता है।”

डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत- “उपन्यास मानव जीवन का वह स्वच्छ और यथार्थ गद्यमय चित्र है जिसमें मानव मन के प्रसाधन की अद्भुत क्षमता है। उपन्यासकार यह कार्य सफल चरित्र चित्रण के सहारे करता है। “

भारतीय समाज में शास्त्रीय दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए।

उपन्यास के प्रमुख तत्व

सभी प्रकार की कथानक रचनाओं के मुख्य तत्व हैं-कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, शैली एवं जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति इसका क्रमवार विवरण निम्न है।

1.कथावस्तु- कथानक उपन्यास का प्राण तत्व है। उपन्यास की कथावस्तु जीवन के उपन्यास होते हुए भी उसमें कल्पना का ही तत्व अधिक होता है। उपन्यास कथावस्तु का चयन कहाँ से करता है, यही उसकी क्षमता का परिचायक है। कथानक का चयन करते समय उपन्यासकार कथानक विशेष में तीन बातों का ध्यान रखता है।

कौतूहल प्रधानता – उपन्यास में कौतूहल तत्व नहीं हुआ तो पाठक की जिज्ञासा को जागृत करना असम्भव हो जाता है। फलतः पाठक उपन्यास को छोड़ बैठेगा। इसलिए उपन्यास का कथानक कौतुहलवर्धक होना चाहिए, ताकि पाठक उससे चिपका रहे। रास्ते-रास्ते, रेल, बस, हवाई जहाज तक में पढ़ता रहे और चलता रहे। कौतूहल तत्व उसे क्षण भर को भी न छोड़े।

आधुनिक हिंदी काव्य (राधा-मैथिलीशरण गुप्त) बी.ए. द्वतीय वर्ष सन्दर्भ सहित व्याख्या

सम्भाव्यता, विश्वसनीयता प्रामाणिकता – उपन्यास का कथानक कौतुहल प्रधान होते हुए भी सम्भव कथानक होना चाहिए। असम्भव घटनायें यदि उपन्यास में वर्णित की जायेंगी तो पाठक का विश्वास उपन्यास और उपन्यासकारी दोनों पर से ही उठ जायेगा और पाठक उपन्यास को छोड़ बैठेगा। अस्तु अविश्वसनीय घटनायें उपन्यास में वर्णित नहीं होना चाहिए।

सम्बद्धता (संगठन) उपन्यास का कथानक संगठित होना चाहिए। विश्रृंखल उपन्यास भी पाठक को प्रभावित नहीं कर पाते हैं। उपन्यास की घटनायें क्रमश: एक दूसरे सम्बद्ध होनी .चाहिए। तभी पाठक उपन्यास से सम्बद्ध रह पाता है।

2.पात्र एवं चरित्र चित्रण- उपन्यास को हेनरी जेम्स ने ‘जीवन का दर्पण’ बाल्जक ने ‘ मनुष्यों की यथार्थताओं से बना घर’ एवं प्रेमचन्द ने ‘मानव चरित्र का चित्र’ कहा है। वस्तुतः उपन्यास का वर्ण्य विषय मानव का चरित्र है। मानव की रचना बहुत जटिल है, पर्तों में पत हैं, प्याज के छिलके की तरह उपन्यासकार उन्हीं परतों को उधेड़ने की चेष्टा करता है ताकि मनुष्य अपने निकट पहुँच सके। अपने को पहचान सके क्योंकि मानव का बाहरी रूप उसके भीतरी रूप का ही प्रतिबिम्ब हुआ करता है। अतः उसकी चेष्टायें अर्थात आचरण उसके मन का प्रतिरूप हुआ करते हैं।

उपन्यास के पात्रों का वर्गीकरण दो प्रकार से हो सकता है-

  1. कथानक की दृष्टि से।
  2. चरित्र की दृष्टि से।

कथानक की दृष्टि से पात्र दो प्रकार के हो सकते हैं- प्रधान पात्र एवं गौड़ पात्र और चरित्र की दृष्टि से प्रधान पात्रों के तीन उपभेद है-

  1. नायक-नायिका (धीरोदात्त, धीरललित, धीरोद्धात्त, धीरप्रशांत)
  2. प्रतिनायक प्रतिनायिका खलनायक खलनायिका
  3. पताका नायक-पताका नायिका सहायक सहनायिका।

चरित्र की दृष्टि से पात्रों के कई वर्ग हो सकते हैं जैसे कि-

  1. स्थिर चरित्र प्रधान पात्र
  2. गतिशील चरित्र प्रधान पात्र।

3.देशकाल – समसामयिकता मानव मन को बिना उसके देशकाल में जाने उसकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का वास्तविक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसलिए उस देशकाल के सन्दर्भ में ही परखना बहुत आवश्यक होता है। संस्कृत में एक उक्ति है जो उपन्यास के सन्दर्भ में देशकाल की प्रासंगिकता पर बहुत सटीक है- यद्यपि ‘सत्यं लोक विरुद्धं, नाकरणीयं, नाचरणीयं ” इस दृष्टि से उपन्यासकार को चाहिए कि अपने उपन्यास में जिस देशकाल एवं वातावरण के कथानक को वह प्रस्तुत कर रहा हो उसी देशकाल एवं वातावरण की धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों को प्रस्तुत करे अर्थात उपन्यास का कथानक देशकाल एवं वातावरण के समसामायिक हो। समसामयिकता के अभाव में कथानक अविश्वसनीय हो जाता है।

कथोपकथन (संवाद) – उपन्यास कथात्मक विधा है अतः उसमें संवादात्मकता बहुत आवश्यक है। पात्रों के भाव-विचार क्रिया प्रतिक्रियाओं के व्यक्तीकरण एवं मानव मन के अर्थात पात्रों के चरित्र, उनके संवाद पात्रानुकूल होते हैं। जयशंकर प्रसाद के कंकाल, तितली, इरावती, ऐसे ही संवाद प्रधान उपन्यास हैं।

शैली एवं भाषा- सुप्रसिद्ध आलोचक बफन का कहना है कि Style is the man himself । उपन्यासकार प्रायः जिन शैली रूपों, घटनाओं की अभिव्यक्ति करता है, वे हैं-

  1. वर्णनात्मक शैली- चन्द्रकांता संतति (देवकी नन्दन खत्री)।
  2. कथात्मक शैली- गोदान (प्रेमचन्द)
  3. आत्मकथात्मक शैली- त्यागपत्र (जैनेन्द्र )

4.पत्र शैली- चन्द्र हसीनों के खतूत पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ । भाषा प्रायः पात्रानुरूप होती है, विषयानुरूप होती है एवं घटनानुरूप होती है, देशकालानुरूप होती है। उपन्यासकार पात्रों के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग उसका वर्ण्य विषय होता है। उसके अनुरूप भाषा का प्रयोग करता है और जैसा कथानक हो, उसके अनुरूप भाषा प्रयोग करता है। भाषा के सन्दर्भ में सबसे अधिक विचारणीय भाषा का देशकाल, सापेक्षता इस दृष्टि से बहुत सशक्त उपन्यासकार कामरेड यशपाल हैं, जिनके ‘झूठा सच’ की भाषा ‘दिव्या’ से बिल्कुल भिन्न है।

उद्देश्य – कोई भी साहित्यिक कृति बिना उद्देश्यों के नहीं होती है। निरुद्देश्य को पूछता भी कोई नहीं है। समर्थ लेखक किसी न किसी जीवन्त उद्देश्य की प्रतिष्ठा के लिए सृजन करता है।

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