परिवार का परिभाषा एवं अर्थ
परिवार का परिभाषा परिवार मानव सभ्यता के इतिहास में एक सबसे महत्वपूर्ण संस्था रही है। यह विवाह, रक्त सम्बन्ध, नातेदारी में बन्धे हुए व्यक्तियों का एक संगठन है, जिसमें वैयक्तिकता, प्राथमिक सम्बन्ध तथा स्थायित्व के गुण सर्वाधिक मात्रा में पाये जाते हैं। मैकाइवर ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है, “परिवार बच्चों की उत्पत्ति एवं पालन-पोषणकी व्यवस्था करने हेतु पर्याप्त रूप में निश्चित और स्थायी यौन-सम्बन्ध से निर्धारित एक समूह है।”
बर्गेस एवं लॉक द्वारा दी गई परिभाषा कुछ अधिक स्पष्ट एवं विस्तार से है। उनके अनुसार, “परिवार उन व्यक्तियों का एक समूह है जो विवाह रक्त या गोद लेने के बन्धनों से जुड़े हुए हैं, एक गृहस्थी का निर्माण करते हैं और पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन अपने-अपने क्रमशः सामाजिक कार्य, अंतःक्रिया एवं अंत: संचार करते हैं तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण करते हैं।”
मरडॉक ने परिवार को परिभाषित करते हुए कहा है, “परिवार एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसके लक्षण सामान्य निवास, आर्थिक सहयोग और जनन है। इसमें दो लिंगों के बालिग शामिल हैं, जिनमें कम से कम दो व्यक्तियों में यौन सम्बन्ध होता है और जिन बालिग व्यक्तियों में यौन सम्बन्ध होता है उनके अपने या गोद लिए हुए एक या अधिक बच्चे होते हैं।”
परिवार की ये परिभाषाएँ परिवार के समाजशास्त्रीय अर्थ को स्पष्ट करती है और उसके स्वरूप को भी विस्तार से समझाती हैं। इन परिभाषाओं को भलीभाँति समझने के लिए हमें परिवार की उन विशेषताओं को भी देखना होगा जो इन परिभाषाओं में निहित जान पड़ती हैं। इन विशेषतओं को हम दो श्रेणियों में रख सकते हैं- सामान्य एवं विशिष्ट ।
परिवार के प्रकार-
सामान्यतः परिवार को पाँच वर्गों में विभाजित किया जाता है
- सदस्यों की संख्या के आधार पर,
- विवाह के आधार पर,
- सत्ता के आधार पर,
- वंशनाम के आधार पर,
- निवास स्थान के नाम पर
- सदस्यों की संख्या के आधार पर दो प्रकार के परिवार आते हैं
(अ) एकाकी परिवार
एकाकी परिवार में माता-पिता और उनके अविवाहित बच्चे एक साथ रहते हैं। इस प्रकार के परिवार प्रायः शहरी एवं औद्योगिक क्षेत्रों में निवास करते हैं।
(ब) संयुक्त परिवार
संयुक्त परिवार में एक साथ तीन पीढ़ियों के सदस्य रहते हैं। यथा दादा-दादी, माता-पिता और बच्चे। इस प्रकार का परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है। अपवाद स्वरूप इस प्रकार का परिवार कभी कभी शहरों में भी दिखाई पड़ जाता है।
(2) विवाह के आधार पर भी दो प्रकार के परिवार मिलते हैं
(अ) एक विवाही परिवार-
एक पुरुष जब एक स्त्री से विवाह कर घर बसाता है, तो उसे एक विवाही परिवार कहते हैं।
(ब) बहुविवाही परिवार
जब कोई पुरूष या स्त्री एक से अधिक विवाह करते हैं, तब उन्हें बहु विवाही परिवार कहा जाता है। ऐसे परिवार के दो उपभेद होते हैं
(क) बहुपत्नी परिवार
कुछ ऐसे भी परिवार होते हैं जिनमें एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है। भारत में नागा, बैगा और गोंड जनजातियों में भी इस प्रकार के परिवार पाए जाते हैं।
(ख) बहुपति परिवार
जब किसी स्त्री का विवाह एक से अधिक पुरूषों से होता है, वहाँ बहुपति परिवार का निर्माण होता है। महाभारतयुग में द्रौपदी का विवाह इसी प्रथा के अनुरूप हुआ था। दक्षिण भारत के टोडा और मालवार के नायर परिवारों में इस प्रथा के उदाहरण मिलते हैं।
(3) सत्ता के आधार पर भी दो प्रकारों के परिवार मिलते हैं
(क) पितृ सन्तात्मक परिवार-
जिन परिवारों में परिवार का मुखिया पुरुष होता है तथा परिवारों में पुरुषों के हाथों में प्रभुत्व रहता है उन्हें पितृसतात्मक परिवार कहा जाता है।
(ख) मातृसतात्मक परिवार
मातृसतात्मक परिवार पितृसतात्मक परिवार के विपरीत होते हैं। ऐसे परिवार में माता ही परिवार का केन्द्र होती है और स्त्री को ही ऐसे परिवारों का मूल पूर्वज माना जाता है। स्त्री और उसके रक्त सम्बन्धियों (स्त्री का भाई या बहन आदि) के हाथों में ही परिवार की सत्ता होती है। मालवार में वेल्लार तथा नायर और असम में खासी तथा गारो जनजातियों में ऐसे परिवार देखे जा सकते हैं।
(4) वंशनाम के आधार पर निम्नलिखित परिवार मिलते हैं
(क) पितृवंशीय परिवार
ऐसे परिवारों में वंश पिता के नाम पर चलता के वंश का नाम मिलता है। पुत्रों को पिता के वश का नाम मिलता है।यह प्रथा भी आम तौर पर सभी समुदायों में मिलती है।
(ख) मातृवंशीय परिवार
ऐसे परिवारों में स्त्री के नाम से वंश चलता है और पुत्र-पुत्रियों को माता के वंश का नाम मिलता है।
(ग) द्विनामी परिवार
ऐसे परिवारों में माता और पिता दोनों के ही वंशनाम से परिवार चलता है।’
(5) निवास स्थान के आधार पर निम्नलिखित परिवार मिलते हैं
(क) नव-स्थानीय परिवार
इस प्रकार का परिवार आधुनिक सामाजिक संस्कृति की देन है। ऐसे परिवारों में पति-पत्नी स्वतंत्र रूप से अपने-अपने माता-पिता से अलग निवास स्थापित करते हैं।
(ख) पितृ स्थानीय परिवार
ऐसे परिवारों में विवाह के पश्चात् पत्नी अपने पति के घरवालों के साथ रहने चली जाती है, अर्थात् स्त्री अपने ससुरालवालों के साथ रहने चली जाती है। यह परिवार भारत में आम तौर पर सभी समाजों में पाया जाता है।
मानव तथा पशु समाज में जैविकीय अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
(ग) मातृ-स्थानीय परिवार
ऐसे परिवारों में विवाह के बाद स्त्री अपने माता-पिता के साथ ही रह जाती है और पति अपनी पत्नी के घर रहने के लिए आ जाता है। नायर, खासी और गारो जनजाति में यह परिवार देखा जा सकता है। यहाँ हमें एक बात पर ध्यान देना होगा जो परिवार पितृसत्तात्मक (Patriarchal) होते हैं ये ही आम तौर पर पितृवंशीय एवं पितृ स्थानीय भी होते हैं। ठीक उसी प्रकार, जो परिवार मातृसतात्मक होते हैं वे ही सामान्य तौर पर मातृवंशीय एवं मातृ स्थानीय होते हैं।
उपरोक्त के विपरीत डेविस किंग्सले ने परिवार के दो प्रकार इस तरह बताये हैं
- जनित परिवार जिस परिवार में व्यक्ति जन्म लेता है, और पलता है उसे जनित परिवार कहते हैं।
- जनन परिवार विवाह के पश्चात् व्यक्ति जिस परिवार की स्थापना करता है, उसे जनन परिवार कहा जाता है।
परिवार का महत्व
मानव के लिए परिवार का बहुत महत्व है। परिवार सामाजिक जीवन की महत्वपूर्ण इकाई है और समाज में जीवकोपार्जन के लिए आवश्यक तरीके सिखाती है। सर्वप्रथम व्यक्ति परिवार में ही जन्म लेता है उसी में पलता है, कुछ सीखता है तथा समाजीकरण की विधियों से सामाजिक गुणों को ग्रहण करता है और अपने व्यक्तित्व का विकास करके एक जिम्मेदार सामाजिक प्राणी बनता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा, आचार-व्यवहार तथा सामाजिक क्रियाकलापों को व्यक्ति परिवार में ही सीख लेता है। अतः जो कुछ भी व्यक्ति प्रारम्भ से सीखता है। उसका प्रभाव व्यक्ति में स्थायी और आन्तरिक होता है तथा यह प्रभाव अमिट होता है। परिवार व्यक्ति की मन सामाजिक इच्छाओं का केन्द्र तथा प्रारम्भिक पाठशाला है, यहाँ इस पाठशाला में सामाजिकता का पाठ पढ़ाया जाता है। परिवार में बच्चा अच्छा, बुरा, उचित-अनुचित सही गलत आदि के बारे में सीखता है तथा सामाजिक तौर-तरीकों एवं आदर्शों के समान सामाजिक व्यवहार करता है। व्यक्ति परिवार में ही समाज द्वारा बनाये गये नियमों, परम्पराओं तथा प्रथाओं आदि के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है साथ ही अपने उत्तरदायित्व को निभाने के तरीके भी सीखता है। परिवार द्वारा निम्न चार इच्छाओं की पूर्ति होती है। ये इच्छाये निम्न है-
- सुरक्षा की इच्छा
- नवीन अनुभव की इच्छा
- प्रति उत्तर की इच्छा
- मान्यता की इच्छा।
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