‘भारत प्रजातियों का दावण पात्र है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए ?

‘भारत प्रजातियों का दावण पात्र

भारत प्रजातियों का दावण पात्र एक नृवंशीय या नृजातीय समूह का वास्तविक अर्थ ऐसे व्यक्तियों के समूह से है, जो समान संस्कृति और समान राष्ट्रीयता से सम्बन्धित होते है। यदि हम भारत में बांग्लादेशी, तिब्बती, पारसी, नेपाली आदि लोगों की बात करते हैं तो निश्चित रूप से वे अलग-अलग नृवंशीय समूह हैं। परन्तु सामान्य रूप से मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने नृवंशीय समूह और प्रजातीय समूह का समान अर्थों में ही प्रयोग किया है। नृवंशीय समूह के अध्ययन के अन्तर्गत किए गए समस्त अध्ययन प्रजातीय समूहों के अध्ययन पर ही आधारित है। इसलिए भारतीय जनसंख्या में जब हम नृवंशीय तत्व की बात करते हैं तो हमारा आशय भारतीय जनसंख्या में प्रजातीय तत्व से ही है। प्रजाति एक जैवकीय अवधारणा है। इसका अभिप्राय एक ऐसे समूह से है, जिसके सदस्य समान शारीरिक लक्षणों से सम्बन्धित होते हैं और इनके आधार पर ही वे दूसरे समूह से अलग दिखलाई देते हैं।

डी. एन मजूमदार के अनुसार, “यदि व्यक्तियों के एक समूह को समान शारीरिक लक्षणों के आधार पर अन्य समूहों से पृथक पहचाना जा सके, तो चाहे उस जैवकीय समूह के सदस्य कितने ही बिखरे क्यों न हों, वे एक प्रजाति के हैं।” प्रजातियों का निर्धारण दो प्रकार के शारीरिक लक्षण निश्चित और अनिश्चित शारीरिक लक्षण से है। निश्चित शारीरिक लक्षणों अन्तर्गत सिर की बनावट, नाक की बनावट, खोपड़ी का घनत्व, कद, रक्त समूह, मुखाकृति, जबड़ों की बनावट, वक्षस्थल की परिधि आदि को सम्मिलित किया जाता है। निश्चित लक्षण वे है, जिनकी माप सम्भव है। अनिश्चित शारीरिक लक्षणों के अन्तर्गत त्वचा का रंग, केश रचना, आँखों का रंग व बनावट आदि को सम्मिलित किया जाता है। इन लक्षणों की माप सम्भव नहीं है, अतः उन्हें अनिश्चित शारीरिक लक्षण कहा जाता है।

भारत में जहाँ तक प्रजातीय तत्वों की बात है, यह आसानी से कह दिया जाता है कि “भारत वर्ष प्रजातियों का अजायबघर है।” इस कथन में सत्यता की मात्रा बहुत अधिक है क्योंकि विश्व में जितनी भी प्रजातियाँ पायी जाती हैं, उन सबकी विशेषताएँ किसी न किसी रूप में भारत में विद्यमान हैं। यदि हम सरसरी निगाह से भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को देखें तो यह बात पूर्णतः सुस्पष्ट हो जाती है। मोटे तौर पर यदि हम पश्चिमी गंगा-यमुना के मैदान से लेकर उत्तरी पश्चिमी भारत की ओर जाए तो सामान्य रूप से गौर वर्ण, लम्बा कद, नीली और भूरी आँख, लम्बी नाक जैसी विशेषता से सम्बन्धित व्यक्ति देखने को मिलते हैं। यदि हम उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और गुजरात को देश तो हमें चौड़े कन्धे, गहरी छाती, लम्बी और चीड़ी नाक, सिर चौड़ा आदि विशेषताओं से सम्बन्धित व्यक्ति देखने को मिलते हैं।

इसी प्रकार यदि हम दक्षिणी भारत की ओर जाते हैं, तो हमे छोटा कद, छोटा शरीर। काली त्वचा, ऊनी और घुंघराले बाल वाले व्यक्ति देखने को मिलते हैं। यदि हम उत्तर भारत के पहाड़ी हिस्से में जाएँ, तो हमें छोटा कद चपटा चेहरा, अधखुली आँख लम्बा और चौड़ा सिर, पीली त्वचा जैसी विशेषताओं से सम्बन्धित व्यक्ति देखने को मिलते हैं। भारत में बाहरी समूहों का प्रवेश प्राचीन काल में होता आया है। बाहर से आने वाले समूह यहाँ बसते गए और एक-दूसरे से मिश्रित होते गए। इसीलिए यहाँ प्रजातीय विविधता काफी देखने को मिलती है। भारत में प्रजातीय तत्वों के अध्ययन को काल को दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया गया है।

(क) प्रागैतिहासिक काल विभिन्न स्थानों पर हुई खुदाई से मिले प्रमाणों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि प्रागैतिहासिक काल के दौरान भारत में कई प्रजातीय तत्व मौजूद थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में जो हड्डियाँ और कंकाल मिले, उनके आधार पर कर्नल सैम्युअल और डॉ० गुह्य भारत में प्रागैतिहासिक काल में निम्नलिखित प्रजातीय तत्वों के उपस्थिति होने की बात करते हैं-

1. प्राटो आस्ट्रेलॉयड,

2. मंगोलॉयड,

3. भूमध्यसागरीय,

शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसकी अपने शब्दों में परिभाषा दीजिए।

4. अल्पाइन सन् 1921 में किए गए खुदाई कार्य में एक कर्पर बयाना और एक कर्पर सियालकोट में पाया गया। सियालकोट का कर्पर भूमध्य सागरीय प्रजाति । का, जबकि बयाना का कर्पर मिश्रित प्रजाति का था। इसी प्रकार हैदराबाद के रायचूर जिले में मस्की नामक स्थान पर हुई खुदाई में जो नर कंकाल मिले, उनसे भूमध्यसागरीय तथा पश्चिमी अल्पाइन की • आर्मिनॉयड शाखा की प्रजातियों के अस्तित्व के संकेत मिलते हैं। वैसे भारत में खुदाई आदि के कार्य को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया जाता है, परन्तु थोड़ी बहुत खुदाई से जो भी प्रमाण मिले हैं, उनसे यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि प्रागैतिहासिक काल के भारत में प्रजातीय तत्वों की विविधता रही है।

(ख) ऐतिहासिक काल- ऐतिहासिक काल का आरम्भ भारत में आर्यों के आने से शुरू होता है। आर्यों के आने के पश्चात् भारत में अनेक बाहरी समूहों का प्रवेश हुआ। भारत में प्रजातीय तत्वों के अध्ययन के सम्बन्ध में कई विद्वानों के द्वारा प्रयास किए गए हैं। इनमें रिजले, गुहा, हड्डन और हैडन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि भारत की जनसंख्या में विभिन्न प्रजातियों के मिश्रित तत्व देखने को मिलते हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय समाज का सम्पूर्ण प्रजातीय इतिहास इतना विविधतापूर्ण है कि किसी भी प्रामाणिक निष्कर्ष तक पहुँच सकना बहुत कठिन है। साधारणतया भारत की जनसंख्या में जिन प्रजातीय तत्वों का उल्लेख किया जाता है, उनका आधार यहाँ के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोगों की शारीरिक विशेषताएँ ही हैं। भारत में एक लम्बे समय से अनेक प्रजातीय समूहों के अप्रवास और उनके बीच मिश्रण की प्रक्रिया चलती रही। इसके फलस्वरूप यहाँ किसी भी प्रजाति की विशेषताएँ अपने मूल रूप में विद्यमान नहीं हैं। भारत की जलवायु गरम होने के कारण इतने पुराने नर कंकाल भी नहीं मिले पाते जिनकी सहायता से यहाँ के प्रजातीय इतिहास को समझा जा सके।

हिन्दुओं में दाह-संस्कार की परम्परा होने तथा अस्थियों को नदी अथवा समुद्र में फेंकने की परम्परा के कारण भी ऐसे अवशेष नहीं मिल पाते जिनके द्वारा विभिन्न क्षेत्रों की मौलिक प्रजातीय विशेषताओं को समझा जा सके। वर्तमान 2 में हम जिन शारीरिक विशेषताओं के आधार पर प्रजातीय वर्गीकरण को करने का प्रयत्न करते हैं, वे केवल एक मिश्रित स्वरूप को ही स्पष्ट करती हैं। इस प्रकार बहुत प्राचीन काल से भारत में प्रजातियों का मिश्रण होते रहने के कारण ही भारत को ‘प्रजातियों का अजायबघर’ अथवा ‘ विभिन्न प्रजातियों का द्रावण-पात्र कहा जाता है।

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