क्रिप्स मिशन की असफलता ने भारतीय नेताओं में दुःख के अतिरिक्त क्षोभ भी उत्पन्न कर दिया। देशवासियों के बीच भी निराशा व्याप्त हो गयी। इस बीच विश्वयुद्ध में मित्रराष्ट्रों की स्थिति कमजोर पड़ गई थी। बुरी शक्तियाँ ज्यादा सफलता प्राप्त कर रही थी। ऐसी स्थिति में भारत पर जापानी आक्रमण का भी खतरा बन गया था। मलाया और बर्मा में जापानी कुकृत्यों को देखकर भारतीयों के मन में घबराहट पैदा हो रही थी। अंग्रेजी सरकार भी जापानियों की प्रगति देखकर सशंकित थी। उन्हें विश्वास हो गया था कि जापानी कम से कम बंगाल पर अवश्य आक्रमण करेंगे। इसलिए अंग्रेजों ने भी बंगाल में पीछे हटने की नीति का पालन करने की योजना बना ली। इससे बंगाल के औद्योगिक प्रतिष्ठानों और अर्थव्यवस्था के पूरी तरह नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया। इन सभी कारणों से भारतीयों में आतंक और बेचैनी व्याप्त हो गयी। इन्हीं परिस्थितियों में गाँधीजी ने जनता को निराशा व घबराहट से उबारने के सूत्र के रूप में उनमें यह विश्वास भरा कि वह स्वयं अपनी मालिक है और सुरक्षा के लिए उसे स्वयं तैयार होना है, ब्रिटेन पर आश्रित नहीं रहता है।
इसलिए गाँधीजी ने सरकार से ‘भारत छोड़ने’ और सत्ता भारतीयों को सौंपने की माँग की। वे सरकार द्वारा भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने की स्थिति में अंग्रेजी सेना को भारत में रहकर युद्ध संचालन करने की अनुमति देने को भी तैयार थे। अन्यथा, गाँधीजी ने धमकी दी, “भारत की बालू से एक ऐसा आंदोलन पैदा करेंगे जो खुद कांग्रेस से भी बड़ा होगा।”
भारत छोड़ो आंदोलन के लिए कौन सी परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं?
कांग्रेस के अनेक नेता गाँधीजी के इस कार्य से प्रसन्न नहीं थे। वे समझते थे कि जिस समय भारत और ब्रिटेन पर विपत्ति के बादल मंडरा रहे थे, उस समय आंदोलन की बात अव्यवहारिक एवं इसकी सफलता संदिग्ध थी। नेहरू की चिन्ता यह थी कि जर्मनी, जापान, रूस और चीन में से किसका चुनाव किया जाय। मौलाना आजाद भी गाँधी से सहमत नहीं थे। सरदार पटेल और गाँधीजी के प्रयासों से अंतत: जुलाई 1942 में वर्धा में कांग्रेस महासमिति ने गाँधीजी के ‘अहिंसक बिद्रोह के कार्यक्रम को स्वीकृति प्रदान कर दी। 7 अगस्त, 1942 को बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें महत्वपूर्ण ‘ अगस्त प्रस्ताव’ पेश किया गया।
प्रस्ताव आजाद ने पेश किया जो उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थे। प्रस्ताव में कहा गया कि भारत तथा मित्र राष्ट्रसंघ दोनों के हित में यह बात है कि भारत में ब्रिटिश शासन की समाप्ति यथाशीघ्र हो। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में एक अस्थाई सरकार बनाई जायेगी। भारत मित्र राष्ट्र संघ का सहयोगी बन जायेगा और अपने सभी साधनों का प्रयोग स्वतन्त्रता के लिए तथा नाजीवाद, फासिज्म और साम्राज्यवाद के आक्रमण के खिलाफ करेगा। मुस्लिम लीग को यह आश्वासन दिया गया कि संविधान की रचना इस प्रकार से की जायेगी जिससे संघ में सम्मिलित होने वाली इकाईयों को अधिकाधिक स्पायत्ता हो, परन्तु शेष अधिकार केन्द्र के हाथों में ही सुरक्षित होंगे। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए महात्मा गाँधी के नेतृत्व में अहिंसक परन्तु व्यापक जन-आंदोलन (भारत छोड़ो आंदोलन) प्रारम्भ करने का प्रस्ताव स्वीकार किया गया। गाँधीजी ने अपने भाषण 8 अगस्त, 1942 की रात्रि में कहा, “मैं तुरन्त स्वतंत्रता चाहता हूँ, अगर हो सके आज ही रात, पौ फटने से पहले—-मैं पूर्ण स्वतंत्रता से कम किसी भी चीज से सन्तुष्ट नहीं हो सकता——-यह है एक मंत्र, बड़ा छोटा सा, जो मैं आपको देता हूँ। इस मंत्र को आप अपने हृदय पर अंकित कर सकते हैं—मंत्र है- ‘करो या मरो’। हम भारत को स्वतंत्र करेंगे या इस प्रयास में मर मिटेंगे, हम अपनी गुलामी को स्थायी बनाया जाना देखने के लिए नहीं जिंदा रहेंगे—–।”
भारत छोड़ो आन्दोलन की असफलता के क्या कारण थे ?
आंदोलन का प्रारम्भ और सरकारी दमन-
सरकार पहले से ही कांगेस की तरफ से आशंकित होकर उसकी गतिविधियों पर निगाह रखे हुए थी। 9 अगस्त, 1942 की तड़के सुबह ही महात्मा गाँधी, वर्किंग कमेटी के सदस्य तथा अन्य अनेक नेता बंबई में तथा देश के अन्य भागों में गिरफ्तार कर लिये गये। गाँधी को पूना में आगा खाँ पैलेस में, सरोजनी नायडू के साथ रखा गया, अनेक नेता किले में नजरबंद कर दिये गये। राजेन्द्र प्रसार पटना में नजरबंद कर लिये गये। जयप्रकाश नारायण को भी गिरफ्तार कर हजारीबाग केन्द्रीय कारावास में रखा गया।
इन घटनाओं ने जनता को अचंभित और क्रोधित कर दिया। अपने नेताओं की गिरफ्तारी से उनमें गुस्से की लहर दौड़ गई। सारे नेता जेल में थे, अतः उनको रोकने वाला भी कोई नहीं था। फलतः गुस्से में जनता ने हिंसा और विरोध का सहारा लिय। जगह-जगह हड़ताल और प्रदर्शन किये गये। गिरफ्तार नेताओं की रिहाई की मांग सर्वत्र गंजने लगी। इस आंदोलन में छात्रों, मजदूरों, किसानों, जनसाधारण सभी ने हिस्सा लिया। सरकार की दमनात्मक कारवाईयों ने गुस्से की लहर और भी तीव्र कर दी। फलस्वरूप क्रुद्ध जनता ने कहीं-कहीं पर अंग्रेजों की हत्या भी कर दी। डाकखानों में आग लगाना, रेल की पटरियों को उखाड़ना, टेलीफोन के तारों को काट देना इत्यादि आन्दोलनकारियों के नियमित कार्य बन गये। अनेक जगहों पर आन्दोलनकारियों ने अपना अधिकार कर वहाँ समानान्तर सरकारें स्थापित कर ली। ब्रिटिश शासन का नामो-निशान उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, आन्ध्र, तमिलनाडू, महाराष्ट्र के अनेक भागों से कुछ समय के लिये मिट गया। जे. पी. हजारी बाग जेल से फरार होकर अपने सहयोगियों के साथ ‘आजाद दस्ता’ बनाकर •सशस्त्र संग्राम की तैयारी एवं जनाक्रांति का कार्य करने लगे।
सरकार इन घटनाओं को शांत बैठकर नहीं देख रही थी, बल्कि अपनी दमनात्मक कार्यवाही में तेजी से चला रही थी। निहत्थी और उग्र भीड़ों को शांत करने के लिए अनेक स्थानों पर पुलिस और सेना को लाठी और गोली का सहारा लेना पड़ा। अनेक जगहों पर निहत्थी जनता पर हवाई जहाज से मशीनगन द्वारा गोलियाँ चलाई गई एवं बम बरसाये गये। अनुमानत: पुलिय की गोलियों से करीब 19000 व्यक्ति मौत के घाट उतार दिये गये। लाखों व्यक्ति गिरफ्तार कर लिये गये। प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई। गाँवों पर सामूहिक जुर्माने लगाये गये तथा ग्रामीणों की कोड़ों से पिटाई की गई।
जिस समय कांग्रेस के आह्वान पर जनता अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिये बाध्य कर बर रही थी, उस समय देश के कुछ प्रमुख व्यक्ति और राजनीतिक दल इस आन्दोलन के विरोधी बन गये। मुस्लिम लीग इस आन्दोलन से अलग रही। इतना ही नहीं, कुछ समय पश्चात् उसने कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन के जवाब में बाँटो और भागो का नारा दिया। रूसी प्रभाव में आकर कम्युनिष्ट पार्टी भी आन्दोलन विरोधी बन गई। उसने अपने आपको आंदोलन से अलग रखा और सरकार की हिमायती बन गई। देशी रियासतें भी इससे अलग रहीं। फलत: पूर्ण समर्थन के अभाव और सरकारी दमन के कारण 1942 ई. की क्रांति असफल हो गई। आन्दोलन को सरकार ने बर्बरतापूर्ण ढंग से कुचल दिया।
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