वर्तमान एवं अतीत के मध्य अंतःसम्बन्धों की विवेचना Interrelationship Between Present and Past

भारतीय संस्कृति एक अति प्राचीन संस्कृति है। दुबे (Dube) के अनुसार यह प्राचीन होने के साथ-साथ अत्यन्त जटिल भी है। इसके विकास का इतिहास हजारों वर्षों का इतिहास है। इतिहासज्ञों ने इसका लगभग पिछले 5,000 वर्षों का इतिहास लिपिबद्ध किया है। दुबे का भी कहना है कि सर्वमान्य विश्वास इसके 5,000 वर्ष के इतिहास की पुष्टि करता है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में संस्कृति के विकास के आधार पर भारतीय समाज को हम चार कालों में विभाजित कर सकते हैं-प्राचीन काल (लगभग 3000 ईसा पूर्व से 700 ई0 तक) मध्यकाल (701 से 1750) ई0 तक), आधुनिक काल (1751 से 1947 ई0 तक) एवं समकालीन काल (1947 ई0 से आज तक) यह काल-विभाजन विश्लेषण की सरलता की दृष्टि से किया गया है अन्यथा काल-प्रवाह को किसी भी तरह निश्चित अवधियों में नहीं बाँटा जा सकता, क्योंकि प्रत्येक युग में पिछले युग के तत्व भी सम्मिलित होते हैं और यह भावी युग की सम्भावनाओं को अपने में समाए होता है।

प्राचीन भारत का लगभग 4000 वर्ष का इतिहास एक दीर्घकालीन सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया को प्रकट करता है जिसमें भारतीय समाज की मूल परम्पराएँ पूर्ण रूप से विकसित हुईं। वैदिक संस्कृति के इसी युग में भारतीय सामाजिक संरचना की संस्थागत आधारशिलाएँ एवं में वैचारिक मान्यताएँ भी विकसित हुईं। वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, जाति व्यवस्था, पितृसत्ता, लिंग विभेदीकरण तथा ग्राम प्रधानता भारतीय संस्कृति की प्रमुख संस्थागत आधारशिलाएँ हैं। धर्म, कर्म, पुनर्जन्म, पुरुषार्थ तथा संसारेतर विश्व (Other worldliness) इसकी प्रमुख वैचारिक मान्यताएँ हैं। मध्यकाल तथा आधुनिक काल में इन संस्थागत आधारशिलाओं में काफी परिवर्तन हुआ परन्तु इनका महत्व किसी-न-किसी रूप में, समकालीन भारतीय समाज में भी पाया जाता है।

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भारतीय संस्कृति का विकास : अतीत एवं वर्तमान में सातत्य

इससे पूर्व कि भारतीय संस्कृति के विकास का वर्णन किया जाए, यहाँ यह कहना आवश्यक प्रतीत होता है कि भारत की भौगोलिक परिस्थिति ने इसके इतिहास के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई है। के) एम) पाणिक्कर (K. M. Panikkar) के शब्दों में, “भारत के भूगोल, इसके प्राकृतिक संकुल, इसके पर्वतों और नदियों ने किसी अन्य देश की अपेक्षा भारत के इतिहास को कहीं अधिक मात्रा में प्रभावित किया है।” उत्तर में अभेद्य हिमालय की ऊँची पर्वतमालाएँ इसकी प्रहरी रही हैं जो इसे एशिया महाद्वीप से पृथक करती हैं। दक्षिण में एक पठारी हिस्सा है जो तीन तरफ से हिन्द महासागर से घिरा हुआ है। पश्चिम में अरब सागर एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी के नाम से यही महासागर भारत के समुद्रीय महत्व को अति प्राचीन काल से बनाए हुए है। इस भाँति, प्रारम्भिक काल से ही भारत एक पृथक भू-भाग रहा है जिसने उसके निजी जीवन एवं सभ्यता के विकास में बहुत योगदान दिया है।

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भारत का विशाल आकार इसे एक उपमहाद्वीप की संज्ञा दिए जाने को तर्कसंगत बनाता है। इसी प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप की प्राकृतिक विविधता ने भी भारतीय समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाई है। प्रत्येक प्रकार की जलवायु के दर्शन यहाँ होते हैं। राजपूताना के तपते हुए रेगिस्तान, हिमालय की सदा बर्फ से ढंकी रहने वाली उच्च चोटियाँ, गंगा-यमुना का बहुत बड़ा मैदान, बंगाल और मालाबार की ट्रोपिकल जलवायु एवं दक्षिणी पठार की सूखी पहाड़ियों वाली भूमि ने इसे सामाजिक विविधता प्रदान की है। मूल रूप से भारतीय मनीषी भारत की दो देशों के रूप में कल्पना करते थे एक उत्तरी भारत जिसे आर्यावर्त कहा जाता था और दूसरा विन्ध्याचल पर्वत से पार दक्षिण पथ कहलाता था। बाद में अगस्त्य ऋषि ने विन्ध्याचल को पार किया और पूरे दक्षिणा पथ को आर्य संस्कृति के साथ बाँधने का प्रयास किया। राम का वनगमन भी इस सांस्कृतिक एकीकरण का प्रयास कहा जा सकता है। तभी से हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत की अवधारणा भारतीयों के जनमानस में सदा से रही है। भारतीय संस्कृति का विकास विभिन्न ऐतिहासिक कालों में हुआ है। अतः संयुक्त भारतीय संस्कृति को समझने हेतु भारतीय समाज के विकास को ऐतिहासिक काल क्रम में समझना अनिवार्य हो जाता है।

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अध्ययन की सरलता एवं विश्लेषण की सुविधा की दृष्टि से भारतीय समाज एवं संस्कृति के ऐतिहासिक काल-क्रम को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. प्राचीन भारत (लगभग 3, 000 ईसा पूर्व से 700 ई0 तक)
  2. मध्यकालीन भारत (701 से 1, 750 ई0 तक),
  3. आधुनिक भारत (1, 751-1, 947 ई0 तक), तथा
  4. समकालीन भारत (1, 947 ई0 से आज तक) ।

भारतीय समाज के इतिहास का उपर्युक्त काल विभाजन सर्वमान्य नहीं है। इन कालों के सम्बन्ध में वर्ग निर्धारण में विद्वानों के मध्य आपस में मतभेद रहा है, परन्तु मोटे तौर पर यह विभाजन वस्तु स्थिति को समझने में सहायक हैं। ‘ऐतिहासिक काल’ शब्द की समाजशास्त्रीय व्याख्या कार्ल मैनहिम (Karl Mannheim) तथा गर्थ एवं मिल्स (Gerth and Mills) ने की है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से ऐतिहासिक काल का तात्पर्य उस सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भ से है जो किसी विशेष समय अवधि के दौरान सामाजिक शक्तियों की गत्यात्मकता को प्रदर्शित करता है। पंचनदिकर (Panchanadikar) ने उचित ही लिखा है, “ऐतिहासिक कालों पर लिखना प्राचीन भारत के काल-क्रम को अथवा भारत के साहित्य के काल-क्रम को निर्धारित करने की तलाश नहीं है।…. किसी भी व्यवस्था में सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन, अपने सामाजिक तथा सीमा सम्बन्धी पृष्ठभूमि में, सांस्कृतिक लक्षणों एवं भावग्रन्थियों के नए संरूपों के उद्भव द्वारा पैदा होते हैं, चाहे ऐसे उद्भवों का स्रोत व्यवस्था के अन्दर से ही हो और चाहे किसी बाहरी संस्कृति के सम्पर्क से पैदा हुआ हो।”

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