विग्रहराज ‘बीसलदेव’ एक महान शासक था। विवेचना कीजिए।

विग्रहराज ‘बीसलदेव’ चतुर्थ अर्णोराज का पुत्र था। अर्णोराज के चार पुत्र थे जिसमें विग्रहराज चतुर्व सबसे शक्तिशाली था। उसने अपने बड़े भाई जगदेव की हत्या कर राजसिंहासन प्राप्त किया था। विग्रहराज चतुर्थ को ‘बीसलदेव’ भी कहा जाता है। यह अपने वंश का सबसे प्रतापी शासक था।

विग्रहराज ‘बीसलदेव’ के इतिहास जानने के श्रोत- इस शासक का इतिहास जानने के अनेक श्रोत प्राप्त हुए है। इसमें अजमेर शिलालेख, (विसंदृ 1210), लोहरी शिलालेख (विसंदृ 7211), दिल्ली शिलालेख, स्तम्भ लेख (विसंदृ 1220) प्रमुख है। इसके अतिरिक्त इसके कुल 11 अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं जिनसे उसके विषय में पर्याप्त जानकारी होती है। यह चाहमान वंश का सबसे प्रतापी शासक था। इसने लगभग 1153 ई. से 1164 ई. तक शासन किया। इसके अन्तिम अभिलेख से भी यह ज्ञात होता है कि सन् 1164 ई. तक चाहमान साम्राज्य हिमालय के तराई से विन्ध्य तक फैल गया था।

विग्रहराज चतुर्थ की उपलब्धियाँ-

विग्रहराज चतुर्थ एक महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने अपने साम्राज्य का बहुत विस्तार किया। उसकी विजय का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

(1 ) चालुक्य वंश पर विजय – विग्रहराज चतुर्थ के पिता अर्णोराज के समय ही चालुक्य वंश से शत्रुता चल रही थी। चाहमान नरेश कुमारपाल ने उसके पिता को पराजित किया था तथा नाडोल के चाहमान सामन्त को शाकम्भर के विरुद्ध अपना सामन्त बनाया था। बिजौलिया अभिलेख से विदित होता है कि विग्रहराज ने सज्जन नामक एक चालुक्य गवर्नर पर आक्रमण कर उसका वध किया। डॉ. अशोक कुमार मजूमदार का कथन है कि यहाँ सज्जन का तात्पर्य दण्डापीश से हैं जो चालुक्यों का सामन्त था । परन्तु डॉ. दशरथ शर्मा का कथन है कि सज्जन चित्तौड़ का सामन्त था।

विजय अभिलेख से विदित होता है कि उसने जाबलिपुर (जालौर) को जला दिया। पाली को एक तुच्छ गाँव बना दिया तथा नद्दूल को बेंत की तरह झुका दिया इससे स्पष्ट होता है कि इन विजय से उसकी सैनिक प्रतिष्ठा में पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी।

(2) वल्लभी के तोमरों पर विजय – विग्रहराज चतुर्थ ने दिल्लिका और आसिका पर विजय प्राप्त की थी। बिजोलिया अभिलेख में उल्लिखित दिल्लिका का तात्पर्य दिल्ली एवं आसिका का ही है। दिल्ली से शिवालिक स्तम्भ लेख (जो फिरोजशाल द्वारा स्थापित अशोक के स्तम्भ में उत्कीर्ण है) प्राप्त हुआ है। इस प्रकार तोमरों की जो स्वतन्त्र सत्ता थी. उसे विग्रहराज चतुर्थ ने समाप्त कर दिया।

(3) भटानक देश पर विजय – बिजौलिया अभिलेख से विदित होता है कि विग्रहराज चतुर्थ ने भटानक देश पर भी विजय प्राप्त की थी। राजशेखर कृत काव्य-मीमांसा में भटानक देश की स्थिति मरू एवं टक (पंजाब के निकट) बतायी है। परन्तु डॉ. दशरथ शर्मा का मत है कि शेखावटी एवं अहीरवादी के मध्य में भटनक स्थित था।

(4) पर्वतीय दुर्गे पर विजय – पृथ्वीराज विजय से विदित होता है कि विग्रहराज चतुर्थ ने अनेक पर्वतीय दुर्गों पर भी विजय प्राप्त की थी। डॉ. पाठक का कथन है कि साक्ष्यों के अभाव में पृथ्वीराज विजय के इस कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

(5) तुर्कों पर विजय – विग्रहराज चतुर्थ ने पंजाब तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया और गंगा-यमुना के सतलज के मध्य के प्रदेश को जो तुर्कों के अधीन था, मुक्त कराया। दिल्ली अभिलेख से विदित होता है कि उसने आर्यावर्त के म्लेच्छों (तुर्की) का समूलोच्छेदन किया।

परन्तु यह कथन अतिश्योक्तिपूर्ण प्रतीत होता है। सोमदेव कृत ललितविग्रहराज नाटक के कुछ अंश अजमेर के मन्दिर (ढाई दिन का झोपड़ा) में उत्कीर्ण है। परन्तु इसमें नाटक का कुछ ही अंश है। इस नाटक से विदित होता है कि विग्रहराज चतुर्य के मन्त्री श्रीधर ने हम्मीर (तुर्क) से अपमानजनक सन्धि करने से मना कर दिया तथा युद्ध करते हुए अपने मित्रों की रक्षा की।

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विग्रहराज चतुर्थ का साम्राज्य विस्तार

दिल्ली शिवालिक अभिलेख से पता चलता है कि ‘विग्रहराज ‘बीसलदेव’ ने हिमालय से लेकर विन्ध्याचल के बीच सभी क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया था। इस अभिलेख का कथन अतिश्योक्तिपूर्ण प्रतीत होता है लेकिन यह सत्य है कि उसने हिमालय की पहाड़ियों के क्षेत्र को अपने अधिकार में कर लिया था विग्रहराज ने अपनी विजय के द्वारा चाहमान सत्ता को उत्तर भारत की सबसे शक्तिशाली सत्ता में परिवर्तित कर दिया था।

मूल्यांकन

विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ एक महान विजेता होने के साथ ही साथ एक विधानुरागी शासक था। वह स्वयं एक विद्वान था और विद्वानों का आदर करता था। उसने स्वयं एक संस्कृत नाटक ‘हरिकोली’ की रचना की थी। प्रबन्ध चिन्तामणि नामक ग्रन्थ में उसे ‘कवि बान्धव’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। विग्रहराज का दरबारी कवि ‘सोमदेव’ था, जिसने ललित विग्रहराज नामक नाटक की रचना की थी। इस नाटक के कुछ अंश हमें अजमेर के सरस्वती मन्दिर में उत्कीर्ण मिलते हैं जिसे विग्रहराज चतुर्थ ने उत्कीर्ण कराया था। इससे यह जानकारी मिलती है कि विग्रहराज तुर्क आक्रमणकारियों को रोकने के लिए सदैव तत्पर रहा। इसके अतिरिक्त उसने अपने मित्र राजाओं, ब्राह्मणों, देवस्थानों तथा तीर्थ स्थानों की रक्षा करना अपना विशेष कर्तव्य माना और उसने अपने उत्तराधिकारियों से भी यह दायित्य निभाने की अनुशंसा की।

विग्रहराज ‘बीसलदेव’ द्वारा अजमेर में एक संस्कृत विद्यालय और एक भव्य मन्दिर की स्थापना की गयी थी। इसके अतिरिक्त अजमेर में उसने ‘बीसलदेव’ नामक एक विशाल सरोवर का निर्माण कराया था। इस सरोवर के किनारे मन्दिर और प्रासाद बनाये गये थे। विग्रहराज ने अपने नाम पर बीसलपुर नामक नगर भी बसाया। बीसलदेव शैव मतावलम्बी था लेकिन वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया और जैन धर्माचार्य धर्मघोष सूरी के कहने पर उसने एकादशी के दिन पशुओं का वध बन्द करा दिया था।

इस प्रकार विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ एक ओर जहाँ महान विजेता और साम्राज्यवादी शासक था, वहीं दूसरी ओर वह एक महान निर्माता और विद्यानुरागी भी था। उसकी इन्हीं योग्यताओं के कारण ही दशरथ शर्मा ने उसके काल को ‘सपादलक्ष का स्वर्णयुग’ कहा है।

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