शास्त्रीय एवं क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण का महत्व व अन्तर्सम्बन्ध का वर्णन।

शास्त्रीय एवं क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण का महत्व व अन्तर्सम्बन्ध-

शास्त्रीय दृष्टिकोण और क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण अपने-अपने महत्व के लिए जाने लगते हैं। स्पष्ट है कि शास्त्रीय दृष्टिकोण एक परम्परागत दृष्टिकोण है और प्राचीन भारतीय समाज की संरचना को और उसके आधारों को रेखांकित करता है अर्थात् भारतीय समाज कैसा था और उसके कौन-कौन से आधार थे? अगर हमें इस बात की जानकारी प्राप्त करनी है तो हमें निश्चित रूप में अपने परम्परागत स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ेगा अर्थात् उन्हें समझने के लिए हमें अपने वेदों, उपनिषदों, पुराणों, गीता, स्मृतियों और अन्य धर्मग्रन्थों से सहायता लेनी पड़ेगी। शास्त्रीय दृष्टिकोण से यदि देखा जाय तो परम्परागत भारतीय समाज के तीन प्रमुख आधार स्तम्भ स्पष्ट किये जा सकते हैं- वर्ण-व्यवस्था, संयुक्त परिवार और पंचायत हम जानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत समाज को परम्परागत चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र में विभाजित किया गया है। समाज को केवल चार भागों में ही विभाजित करने का एक वैज्ञानिक उद्देश्य भी ढूंढा जा सकता है- ज्ञान, रक्षा, जीविका तथा सेवा। मनुष्य की ये चार स्वाभाविक इच्छाएँ हैं।

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आर्य सामाजिक व्यवस्था के विशेषज्ञों का कथन है कि इन चार इच्छाओं या मानव प्रवृत्तियों की पूर्ति के लिए ही समाज को चार भागों में विभाजित किया गया था। वर्ण व्यवस्था का महत्व इसी से स्पष्ट हो जाता है। उसी प्रकार एक गतिशीलता जीवन के लिए यह आवश्यक है कि उसे इस भाँति नियमित व नियन्त्रित किया जाये कि जीवन का अन्तिम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति सरल और सम्भव हो सके। इसके लिए एक क्रमबद्ध व व्यवस्थित जीवन व व्यवस्था की आवश्यकता है। आश्रम व्यवस्था इसी आवश्यकता की पूर्ति है। दूसरी ओर धर्म हमारे कर्त्तव्य-कर्मों का बोध कराता है. और हमें पथभ्रष्ट होने से बचाता है। कर्म का सिद्धान्त हमें अपने कर्त्तव्य-कर्मों का ज्ञान करवाता है और इस बात पर बल देता है कि सतकर्म मनुष्य को उच्च आदर्श की ओर ले जाने में सहायक होता है। सदाचरण एक उच्च मानवीय गुणहै। कर्म का सिद्धान्त भग्यवादी नहीं है, बल्कि यह तो इस बात पर विश्वास करता है कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। यह इस बात पर बल देता है कि कर्म और वह भी निःस्वार्थ सद्कर्म ही वास्तविक पूजा है। अपने कर्त्तव्य-कर्मों का उचित पालन ही हमारा कर्त्तव्य है और हमारा धर्म है। शास्त्रीय दृष्टिकोण के इन सभी विचारों का स्रोत हमारे वेद, पुराण और अन्य धर्मग्रन्थ हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि इस दृष्टिकोण के अध्ययन से हमें अपने परम्परागत सामाजिक मूल्यों, आदर्शों, भावनाओं और विचारों से अवगत होने का अवसर मिलता है और हमें यह पता चलता है कि हमारी परम्परागत सामाजिक व्यवस्था किन उच्चतर आदशों और नियमों पर आधारित थी? यही संक्षेप में शास्त्रीय दृष्टिकोण का अपना महत्व है।

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फिर भी यह महत्व बहुत कुछ दार्शनिक आधारों प आधारित है और इसमें वास्तविक तथ्यों, प्रमाणों और प्रमाणिकताओं की कमी है। तार्किक आधार पर परम्परागत या शास्त्रीय दृष्टिकोण प्रमाण-सिद्धि नहीं भी हो सकता है। इस कमी को क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण पूरा करता है। यह व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) न होकर वस्तुनिष्ठ होता है, क्योंकि यह अनुसंधानकर्ता द्वारा अध्ययन क्षेत्र में जाकर वास्तविक निरीक्षण परीक्षण साक्षात्कार आदि के आधार पर एकत्रित प्राथमिक तथ्यों पर आधारित होता है और इसीलिए कोई भी व्यक्ति इसका पुनर्परीक्षण करके इसकी प्रामाणिकता को परख सकता है। यह अटकलपच्चू विचारों पर आधारित वास्तविक तथ्यों पर आधारित होता है। इसीलिए यह दार्शनिक न होकर न होकर वैज्ञानिक भी होता है। यही क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण पर विशेष महत्व है। वास्तव में यह ‘जो है या जैसा है’ का वर्णन करता है न कि ‘कैसा होना चाहिए’ का वर्णन है। यह विश्वसनीय भी होता है। अतः इसे विश्वास की कसौटी पर नहीं, वास्तविक तथ्यों की कसौटी पर खरा कहा जा सकता है।

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परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि शास्त्रीय दृष्टिकोण और क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण एक-दूसरे से पृथक हैं। वास्तव में इन दोनों में कुछ आधारभूत भिन्नताएँ होते हुए भी इनमें पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध को भी देखा जा सकता है और यह इस बात से ही स्पष्ट है कि हम अतीत को समझे बिना वर्तमान को ठीक से नहीं समझ सकते। शास्त्रीय दृष्टिकोण हमें अतीत से परिचित कराता है, जबकि क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण हमें वर्तमान के निकट लाता है। वास्तविकता यह है कि समस्त क्षेत्र अध्ययनकर्ता सबसे पहले अध्ययन किये जाने वाले अपने समुदाय का परम्परागत आधारों को ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं और फिर वास्तविक निरीक्षण परीक्षण व तथ्यों के आधार पर इस बात का पता लगाते हैं कि वर्तमान समय में उन परम्परागत आधारों की क्या स्थिति हैं? अर्थात् परम्परागत आधारों में कौन-कौन से परिवर्तन हैं और उन परिवर्तनों को घटित करने में कौन-कौन से वर्तमान कारक उत्तरदायी हैं? इस तरह एक अध्ययन क्षेत्र अनुसंधाननकर्ता का अनुसंधान कार्य अतीत की वास्तविकताओं पर आधारित वर्तमान की सच्चाई होती है। इस सच्चाई को वह काल्पनिक या दार्शनिक आधार पर नहीं, बल्कि वास्तविक परीक्षण, निरीक्षण का प्रयोग के आधार पर वास्तविक तथ्यों की कसौटियों पर कसते हुए ‘खोज’ निकालता है। यह खोज उसकी अधूरी होगी, यदि वह परम्परागत आधारों की अपेक्षा करेगा। उन आधारों को आधार मानते हुए जब वह वर्तमान सच्चाइयों को वैज्ञानिक पद्धति की सहायता से परखेगा, तभी वह अध्ययन सार्थक होगा। क्या यह इस बात का यथार्थ प्रमाण नहीं है कि शास्त्रीय दृष्टिकोण तथा क्षेत्र अध्ययन पर आधारित दृष्टिकोण एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप सम्बन्धित व एक-दूसरे के पूरक है।

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