समाजशास्त्र की विषय वस्तु का विवेचना कीजिए।

समाजशास्त्र की विषय वस्तु- समाजशास्त्र की विषय वस्तु क्या है? इसके अन्तर्गत किन-किन विषयों का अध्ययन किया जाता है? आदि पर विद्वानों ने अलग-अलग मत दिये हैं परन्तु वर्तमान में अधिकांशतः विद्वान समाजशास्त्र को समाज का एक सामान्य अध्ययन मानते हैं। वस्तुतः समाजशास्त्र की विषयवस्तु उसकी परिभाषा से ही सम्बद्ध है। ये दोनों ही एक-दूसरे से इंतनी गहराई से जुड़े हैं कि विचारकों ने इन्हें एक ही मान लिया। इस प्रकार जब हम यह कहते हैं कि “सामाजिक सम्बन्धों के जाल’ से निर्मित समाज का जो अध्ययन करता है, वही समाजशास्त्र है, तब इसका अर्थ यह भी होता है कि

“सामाजिक सम्बन्धके जाल’ से निर्मित समाज का अध्ययन ही समाजशास्त्र की विषय-वस्तु है। उसी प्रकार, जॉनसन के अनुसार, समूह को उसकी संपूर्णता में समझना ही समाजशास्त्र की विषय-वस्तु है। दूसरे शब्दों में, समाजशास्त्र की परिभाषाएँ ही विषय-वस्तु को भी स्पष्ट करती हैं। ऑगस्त काम्टे ने समाजशास्त्र को दो भागों में विभक्त किया है-सामाजिक स्थिरता और सामाजिक गतिशीलता। प्रथम भाग में उन्होंने परिवार, सामाजिक संरचना तथा आर्थिक एवं सामाजिक संस्थाओं को रखा है। उनके अनुसार, इन विभिन्न संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन समाजशास्त्र की विषय-वस्तु है। उनके अनुसार, समाज के प्रत्येक हिस्से आपस में जुड़े हुए हैं। दूसरे भाग में उन्होंने समाज की परिवर्तनशीलता को रखा है। अर्थात्, सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी, काम्टे के अनुसार, समाजशास्त्र की विषय-वस्तु है।

समाजशास्त्र की विषय वस्तु के विषय में हर्बर्ट स्पेन्सर ने विस्तृत एवं स्पष्ट प्रकाश डाला है। स्पेन्सर के अनुसार, समाजशास्त्र की विषय-वस्तु के अंतर्गत परिवार, राजनीतिक संगठन, धार्मिक संस्थाएँ, औद्योगिक संरचना आदि को रखा जा सकता है। ये विभिन्न समूह एवं संस्थाएँ समाज को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर, ये संस्थाएँ आदि स्वयं भी समाज से प्रभावित होती हैं। सामाजिक संरचना की चर्चा करते हुए स्पेन्सर ने यह भी दर्शाया है कि समाज के विभिन्न अंग किस प्रकार एक-दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं। समाजशास्त्र की अन्य विषय-वस्तुओं में समाज के विभिन्न हिस्सों के सम्बन्ध को दर्शाना भी समाजशास्त्र का ही कार्य है।

मैक्स वेबर ने भी समाजशास्त्र की विषय-वस्तु का बड़ा स्पष्ट उल्लेख किया है। सर्वप्रथम, वेबर के अनुसार, सामाजिक क्रिया की वैज्ञानिक व्याख्या समाजशास्त्र की मुख्य विषय-वस्तु है। इसके अतिरिक्त उन्होंने जाति, वर्ग, सामाजिक असमानता, आर्थिक व्यवस्था, धर्म, नेतृत्व के प्रकार आदि को भी समाजशास्त्र की विषय-वस्तु माना है।

दुर्खीम ने समाजशास्त्र के अध्ययन में सम्मिलित किये जाने वाले सभी विषयों को तीन भागोंमें विभाजित किया है।

1-सामाजिक दैहिकी- दैहिकी का तात्पर्य उन इकाइयों से है जो न केवल समाज का निर्माण करती है बल्कि अपने-अपने कार्यों के द्वारा समाजरूपी देह अथवा शरीर को व्यवस्थित भी बनाये रखती हैं। उदाहरण के लिए, कानून, धर्म, भाषा, परिवार, नैतिकता तथा लोकाचार इसी प्रकार के विषय हैं। सामाजिक जीवन के लिए ये सभी भाग उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण है जिस प्रकार मानव जीवन के लिए रक्त संचालन, नाड़ी, तन्त्र तथा स्नायुविक व्यवस्था का होना आवश्यक है।

2- सामान्य समाजशास्त्र- इसके अंतर्गत वे सभी विषय आ जाते हैं जो सामाजिक जीवन के अन्य सभी पहलुओं से सम्बन्धित हैं। इसी कारण इस विभाग को सामान्य समाजशास्त्

3- सामाजिक अकारिकी- इसके अन्तर्गत उन सभी विषयों का अध्ययन किया जाता है जो सामाजिक जीवन के आकार तथा स्वरूप का निर्धारण करती है। इस प्रकार भौगोलिक दशाएं, सामाजिक जीवन पर उनका प्रभाव, जनसंख्या के गुण, जनसंख्या का घनत्व तथा उनका स्थानीय वितरण, आदि समाजशास्त्र की अध्ययन-वस्तु के अन्तर्गत आते हैं।

गिन्सबर्ग महोदय ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु को चार भागों में विभाजित किया है

(1) सामाजिक प्रक्रियाएं-सामाजिक प्रक्रिया का अर्थ व्यक्तियों के बीच पाये जाने वाले सम्बन्धों के विभिन्न स्वरूपों से है। इस प्रकार समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में सहयोग, संघर्ष, अनुकरण, अनुकूल, सात्मीकरण, प्रतिस्पर्द्धा, प्रभुत्व, अधीनता आदि सम्बन्धों को सम्मिलित किया जाता है।

(2) सामाजिक आकारिकी– इसमें जनसंख्या सम्बन्धी विशेषताओं के अतिरिक्त उन सभी समूहों, संस्थाओं और समितियों को सम्मिलित किया गया है जो समाज के आकार तथा सामाजिक ढाँच •का निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण हैं।

(3) सामाजिक व्याधिकी- सामाजिक सम्बन्ध हमेशा संगठित ही नहीं होते बल्कि विघटित भी होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण समाज का अध्ययन करने के लिए इन रोगग्रस्त (व्याधिपूर्ण) अथवा विघटित दशाओं का अध्ययन करना भी आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से अपराध, बाल अपराध, बेकारी, बीमारी, निर्धनता, आत्महत्या, अनैतिकता, भ्रष्टाचार आदि सामाजिक समस्याएँ भी समाजशास्त्र के अध्ययन के प्रमुख विषय हैं।

(4) समााजिक नियन्त्रण- अनेक ऐसे विषय है जो सामाजिक जीवन में नियन्त्रण बनाये रखने से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र में धर्म, परम्परा, नैतिकता, कानून, जनमत, प्रचार, आदि का अध्ययन किया जाता है।

समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र की विवेचना कीजिए।

सोरोकिन का मत- सोरोकिन ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु में निम्न बातों को शामिल किय है। उनके अनुसार, निम्नलिखित सामाजिक तथ्य समाजशास्त्र की विषय-वस्तु हो सकते हैं

  • (i) धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि घटनाएँ और उनके बीच पाए जाने वाले सह-सम्बन्ध,
  • (II) भौगोलिक घटनाएँ और सामाजिक जीवन पर उनके प्रभाव,
  • (iii) समाज में घटनेवाली प्रत्येक घटनाओं की आम विशेषताएँ।

ईकल्स महोदय ने समाजशास्त्र की विषय-वस्तु की एक लम्बी रूपरेखा प्रस्तुत की है जिनमें सामाजिक जीवन से सम्बद्ध लगभग प्रत्येक पहलू को शामिल किया गया है, जो निम्नवत् है

समाजशास्त्री विश्लेषण- इसके अंतर्गत समाज विज्ञानों में वैज्ञानिक विधि एवं समाजशास्त्रीय दृष्टिकोणों को शामिल किया जाता है।

समाज की प्राथमिक इकाइयाँ- इसके अंतर्गत समुदाय, जनसंख्या, सामाजिक सम्बन्ध एवं सामाजिक क्रिया आदि को शामिल किया जाता है।

सामाजिक संस्थाएं– सामाजिक संस्थाओं के अंतर्गत परिवार एवं बन्धुत्व, धर्म, आर्थिक संस्थाएँ, राजनीतिक संस्थाएँ एवं शैक्षिक संस्थाएँ शामिल हैं।

सामाजिक प्रक्रियाएँ- सामाजिक प्रक्रियाओं में सहयोग, संघर्ष, सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक विचलन, समाजीकरण एवं सामाजिक नियंत्रण को शामिल किया जाता है।

सामाजिक व्यवस्था एवं परिवर्तन- इस पहलू के अंतर्गत सामाजिक मूल्य एवं प्रतिमान एवं सामाजिक परिवर्तन को शामिल किया जाता है

इस प्रकार उपर्युक्त सूची में लगभग समस्त सामाजिक पहलू में शामिल हैं, परन्तु सामाजिक परिवर्तनशीलता को देखते हुए विषय-वस्तु की सूची में बदलाव भी किया जा सकता

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