असीरियन सभ्यता की कला एवं स्थापत्य का वर्णन कीजिए।

असीरियन सभ्यता की कला- असीरिया की शक्तिशाली सेना और राज्य का तो विनाश हो गया किंतु उसकी कला बची रही। कला के क्षेत्र में असीरियनों ने अपने गुरू बेबिलोन की समता प्राप्त की और प्रस्तर चित्रों में तो वे बहुत आगे बढ़ गये।

वास्तुकला

तिगलथपिलेसर ने भव्य द्वार मण्डप बनवाया। उसके उपरान्त सारगोन द्वितीय ने असीरिया की राजधानी निनेवेह के पास एक सुन्दर नगर बसाया था जिसका नाम दुर- शकिन या सारगोन दुर्ग रखा। उसके पूर्ववर्ती नरेश अशुर नसिरपाल द्वितीय ने कलबी नामक नया नगर बसाया था उसमें राजमहल, मन्दिर और जिंगूरत बनाये गये थे। सारगोन वंश के परवर्ती शासक सेनाकेरिव ने तेबिल्तु (ज्मइपसजन) नदी पर बाँध बँधवा कर उसके पार एक ऊंचे चबूतरे पर शानदार राजमहल बनवाया था। इसके द्वार को सजाने के लिए तांबे के 12 सिंह और बैल बनवाये गये थे। पास के पर्वत के झरनों से जल आपूर्ति की जाती थी। राजप्रसाद को सुसज्जित करने के लिये सोने, चाँदी, ताँबे और संगमरमर के उपकरण रखे गये कसीदे कड़े हुए मेज, कुर्सियों आदि रखी गई।.

जिगरत

असीरियनों ने अपनी राजधानी में जिगरत बनवाया था। तिगलथ पिलेसर प्रथम (1105 ई.पू.) ने अशुर राज्य के देव एवं देवी अनु तथा अन्तुम (Antum) के सम्मान में दो जिगरतों का निर्माण करवाया था। उसी समय एक निमुद (Nimrud) में बनवाया गया था। इन दानों की मरम्मत शाल्मनेसर तृतीय ने करवाया। सारगोन द्वितीय जो सुमेरिया का विजेता था। सम्भवतः निमुद और बेबिलोन के जिगरत से प्रभावित हो अपनी नई राजधानी खोरसाबद में स्थित) में उपर की ओर बढ़ती हुई सतहों से युक्त गोलाकार बाहरी भाग वाला जिगरन बनवाया जिससे सीढ़ियों या पायदान बनान की प्रथा समाप्त हो गई। उळपरी मन्दिर शहुरू (Shahuru) या प्रतीक्षालय का विलोम अप्सु (Apa The Deep गहरा था। ये दोनों शब्द जल औ जिंगूरत दोनों के लिए प्रयुक्त होते थे। उल्टे जिरत या जलराशि में ज्ञान की देवी इया (Ea) रहती थी शिखरस्थ मन्दिर को जिगुन (Gigunu- अंधेरा या पत्लोयुक्त कमरा) कहा जाता था जो गुच्छेदार वनस्पति के लिए भी प्रयुक्त होता था। सुमेरियानों के लिये जिंगूरत स्वर्ग का निर्देशक या सीढ़ी था। यह स्वर्ग जाने का द्वार था।

मूर्तिकला

प्रथम सहस्राब्दी ई.पू. में मूर्तिकला का दजता घाटी में अभाव है और अशुर नसिरपाल की मूर्ति परम्परागत और निर्जीव है। इस कला पर हिन्ती कला का प्रभाव माना जाता है। बड़े पाषाण खण्डों से मूर्तियों को गढ़कर इस प्रकार काटा कि मूर्ति का केवल एक भाग ही पाषाण खण्ड से लगा रहे। ये मूर्तियाँ फलकों पर खोदी हुई मूर्तियों का भी काम देती थीं और अलग से मुर्तियों का भी इन मूर्तियों को अशुर राजाओं ने अपने राजमहल की दीवारों पर लगवाया था। इसमें यथार्थता का भाव है। ये साम्राज्य शक्ति की प्रतीक हैं तथा धर्म निरपेक्ष है। इनमें मुख्यतः पंखयुक्त बैल बने हैं जिनके सिर मनुष्य के है। कहीं नर सिंह का भी मूर्तिकरण किया गया है। यह कल्पना कदाचित् मिस्र के रिफक्स को देखकर आयी।

रिलीफ चित्र

उत्कीर्ण चित्र असीरियन कला के प्राण हैं। ये इतने उच्चकोटि के हैं कि अपनी शानी नहीं रखते सुमेर की भांति यहाँ के लोग भी अलग मूर्तियों की अपेक्षा पत्थर की खुदी हुई मूर्तियों को पसन्द करते थे। वे पाषाणफलक के लिये एक सफेद पत्थर इस्तेमाल करते थे। किन्तु शाल्मनेसर तृतीय के समय का काले पत्थर का एक बड़ा सा खम्म भी मिला है जिसके चारों पटलों पर उसकी विजय प्रशस्ति खुदी है। इसके अतिरिक्त मोजैक की पटिटयों और ताजे प्लास्टर पर भी रिलीफ चित्र बनते थे। इनमें राजाओं द्वारा शिकार का तथा युद्ध का दृश्य दर्शाया गया है। राजकीय फलक पराजित देशों से प्राप्त किये गये और उन पर विजेता के युद्धों का अंकन है। असीरियन कलाकार के चित्रांकन में सबसे अधिक कुशल थे। पशुओं का विभिन्न भावों में चित्रण मिलता है।

“गुप्तकाल भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है।” विवेचना कीजिए।

निनुतों के मन्दिर में ऊँची रिलीफ में दहाड़ते हुए शेर, सेनाकेरिव के निनेवेह के महल में घायल सिंहनी और अशुरवनिपाल के समय के मरणासन्न सिंह, इती कुशलता से चित्रित हैं कि वे असीरियन की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं।’ एक शिकारी और उसके साथ में शिकारी कुत्तों का रिलीफ भी स्वाभाविक लगता है। रस्सी में बँधे हुए कुत्ते दौड़ने की मुद्रा में हैं मानों वे शिकारी के हाथ से रस्सी छुड़ाकर शिकार को पकड़ने के प्रयास में है। इसके साथ ही शिकारी उनके गले में रस्सी डाले हुए नियंत्रित करने के प्रयास में है। अन्यत्र सिंह के बच्चों को ले जाते हुए एक व्यक्ति का चित्र मिलता है। दोनों सिंहशावकों का चित्र स्वाभाविक है। अशुरबनिपाल के महल की भीत का बहुत-सा भाग वृटिश म्यूजियम में सुरक्षित है। इनके निर्माण का उद्देश्य अलंकरण से अधिक घटनाओं के विवरण को सुरक्षित रखना था इसी प्रकार पूजा करते हुए एसारहदों का एक रिलीफ चित्र है। उसके वातावरण में देवों, पशुओं और अशुर देव की आकृतियाँ बनाई गई हैं। राजा पूजा की मुद्रा में चित्रित हैं।

चित्रकला

खोरसाबाद की खोदाई में सारगोन द्वितीय के काल में एक राज दरबारी के मकान की भीत पर की हुई चित्रकारी मिली है। इन चित्रों में लाल, नीले और सफेद रंगों का उपयोग किया गया है। चित्र बनाने के पहिले भीत पर सफेदी करके काला रंग से चित्र बनाते थे। चित्रों में कथाओं का चित्रण किया जाता है।

अन्य कलाओं में सोने, चांदी के गहने उल्लेखनीय हैं। आभूषणों में हाथी दांत तदा लाजवर्द का जड़ाव देखने योग्य है। इस काल की मुहरें बहुत सुन्दर है। शंकु के आकार की मुहरें बनाई और उन पर सुन्दर लिखावट की गई।

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