बहुलवाद की अवधारणा भारत के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।

बहुलवाद की अवधारणा

बहुलवाद जब किसी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक व्यवस्था के अन्दर अनेक उप-व्यवस्थाएँ साथ-साथ विद्यमान रहती हैं तब इस दशा को हम ‘बहुलवाद’ अथवा बहुलतावाद कहते हैं। बहुलवाद मूल रूप से इस मान्यता पर आधारित है कि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समूह अपनी भिन्नता के बाद भी एक देश में साथ 2 रह सकते हैं तथा देश की समृद्धि में सकारात्मक योगदान कर सकते हैं। बहुलवाद एक ऐसी दशा है जिसमें एक दूसरे से भिन्न धर्म, भाषा, जाति, प्रजाति, क्षेत्र अथवा विश्वासों से सम्बन्धित समूहों में से किसी को अविश्वास की निगाह से नहीं देखा जाता, बल्कि उन्हें राष्ट्रीय मामलों में हिस्सेदारी करने के पूर्ण अवसर दिये जाते हैं। इस दृष्टिकोण से बहुलवाद का सम्बन्ध चार प्रमुख आधारों से है-

  1. सहिष्णुता,
  2. पारस्परिक सहयोग,
  3. विभिन्न समूहों के बीच अच्छे सम्बन्ध, तथा
  4. सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना।।

सहिष्णुता एक ऐसी दशा है जिसमें एक-दूसरे से भिन्न विशेषताओं वाले समूहों के बीच किसी तरह के पूर्वाग्रह न हों उनमें एक-दूसरे की संस्कृति और व्यवहारों के प्रति समानता की भावना हो। सहिष्णुता की विशेषता पारस्परिक सहयोग पर आधारित होती है। यह सहयोग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित होता है। विभिन्न समूहों के बीच अच्छे सम्बन्ध होना बहुलवाद की आवश्यक दशा है। यदि किसी राज्य में एक-दूसरे से भिन्न धार्मिक या भाषायी समूहों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता हो तथा उनके बीच समय समय पर संघर्ष होते रहते हों तो इससे बहुलवाद के सामने संकट पैदा हो जाता है। बहुलवाद का सम्बन्ध विभिन्न समूहों के बीच दूरी कम होना है। बहुलवाद एक ऐसी दशा है जिसमें एक-दूसरे से भित्र विशेषताओं वाले समूह किसी दबाव या डर से अपनी विशेषताओं को बहुसंख्यक संस्कृति में विलीन नहीं कर देते बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाये रखते हैं।

इस अर्थ में बहुलवाद की दशा सात्मीकरण से भिन्न है। सात्मीकरण वह दशा हैं जिसमें कोई समूह अपने से प्रभावशाली समूह की संस्कृति में अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं को विलीन कर देता है, और इस प्रकार विभिन्न समूहों के सांस्कृतिक व्यवहारों में बाहरी तौर पर कोई अंतर नहीं रह जाता दूसरी ओर बहुलवाद वह दशा है जिसमें विभिन्न समूह अपनी विशेष सांस्कृतिक विशेषताओं, सामाजिक नियमों, व्यवहार के तरीकों और उप-व्यवस्थाओं को बनाये रखते हैं।

वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक-दूसरे से भिन्न विचारधाराओं वाले अनेक राजनीतिक दल अपनी शक्ति को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। सत्ता में आने के लिए उन्हें अधिक-से-अधिक लोगों का समर्थन पाने की जरूरत होती है। इसके लिए राजनीतिक दलों की यह कोशिश रहती हैं कि वे एक-दूसरे से भिन्न हितों और विशेषताओं वाले समूहों के बीच संतुलन स्थापित करके उनका समर्थन प्राप्त करें। जो राजनीतिक दल सत्ता में आकर सरकार बनाता है, उसके लिए यह जरूरी होता है कि वह अपनी शक्ति को स्थायी बनाये रखने के लिए सभी तरह समूहों की इच्छाओं पर खरा उतरे तथा उनके बीच यदि कोई छोटे-मोटे मतभेद हों तो उन्हें दूर करके एक साक्षी संस्कृति को विकसित करे। यह दशा भी बहुलवाद में वृद्धि करती है।

भारतीय समाज का उदाहरण

भारत के सन्दर्भ में बहुलवाद की दशा को स्पष्ट करते हुए एम. एन. श्रीनिवास ने लिखा है कि यहाँ स्वतंत्रता से पहले तक पवित्रता और अपवित्रता के आधार पर विभिन्न जातियों और उप-जातियों की दूरी निरंतर बढ़ रही थी, वहीं एक आज ऐसी संस्कृति को प्रोत्साहन मिला है जिसमें विभिन्न जातियाँ संगठित होकर अपने बड़े-बड़े संघों की स्थापना कर रही है। इसके फलस्वरूप यहाँ के आर्थिक और राजनैतिक जीवन में जिन जातियों का कोई योगदान नहीं था, उनकी आर्थिक और राजनीतिक पहचान स्पष्ट होने लगी प्रोफेसर एस.सी. दुबे ने बहुलवाद की प्रकृति को आधुनिकीकरण से जोड़कर स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा कि आधुनिकीकरण के कारण भारत की वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था समाज के केवल संभ्रान्त वर्ग से प्रभावित नहीं है, बल्कि सभी क्षेत्रों में मध्यम वर्ग और विभिन्न जाति समूहों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। संचार के क्षेत्र में होने वाली क्रांति ने सामाजिक गतिशीलता को बढ़ाकर बहुलवाद को प्रोत्साहन दिया है।

भारत में बहुलवाद का एक विशेष रूप सांस्कृतिक अभिसरण के रूप देखने को मिलता है। अभिसरण का तात्पर्य विभिन्न संस्कृतियों वाले समूहों की सांस्कृतिक विशेषताओं विचारों, व्यवहार के तरीकों और भौतिक लक्षणों का एक सामान्य बिन्दु पर मिलना है। अभिसरण की प्रक्रिया ऐच्छिक होती है तथा इसे दबाव के द्वारा प्रभावपूर्ण नहीं बनाया जा सकता। अभिसरण के द्वारा किसी विशेष सांस्कृतिक समूह की अपनी पहचान समाप्त नहीं होती बल्कि यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें विभिन्न भाषायी, धार्मिक, क्षेत्रीय और जातिगत समूह अपनी मौलिक सांस्कृतिक विशेषताओं को बनाये रखने के साथ ही दूसरे समूहों की सांस्कृतिक विशेषताओं से इस तरह अभियोजन कर लेते हैं जिससे वे राज्य अथवा समाज से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों में मिलजुल कर भागीदारी कर सके।

उपभोक्ताओं की शोचनीय दशा के कारण बताइये तथा उपभोक्ताओं के अधिकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिये।

भारत में बहुत प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रजातियों की शारीरिक विशेषताओं वाले लोग साथ-साथ रहते आये हैं। धार्मिक आधार पर यहाँ विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के लोग रहते हैं तथा सभी को अपने धार्मिक विश्वासों को बनाये रखने और उन्हें विकसित करने की स्वतंत्रता मिली हुई है। एक ही धर्म से सम्बन्धित लोग अनेक सम्प्रदायों और मतों में विभाजित हैं तथा सभी सांस्कृतिक समूहों के व्यवहार प्रतिमान एक-दूसरे से अलग हैं। सम्पूर्ण भारतीय समाज बहुत-से भाषायी समूहों में विभाजित है वर्ष 2011 में भारत के संविधान द्वारा बोडो, संथाली, मैथिली तथा डोगरी भाषा को मान्यता देने के बाद अब संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। इसके अतिरिक्त, सम्पूर्ण देश अनेक क्षेत्रों में विभाजित है तथा प्रत्येक क्षेत्र की सांस्कृतिक और आर्थिक विशेषताओं में काफी भिन्नता देखने को मिलती है। सभी समूह अपनी भिन्नताओं को स्वीकार करने के बाद साथ-साथ रहते हुए राष्ट्र के सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में समान रूप से योगदान करते हैं। यह सभी दशाएँ भारत को एक बहुलवादी समाज के रूप में स्पष्ट करती है।

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