भारत में प्रौढ़ शिक्षा का विकास भारत में प्रौढ़ शिक्षा के विकास का अध्ययन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते
1. प्रारम्भिक विकास
तथ्यों एवं साक्ष्यों के अनुसार भारत में प्रौढ़ शिक्षा का प्रारम्भिक है विकास ईसाई मिशनरियों द्वारा हुआ है। उनका यह प्रयास सर्वप्रथम उतीसवीं शताब्दी के मध्य में मद्रास प्रान्त में हुआ। डॉ मुखोपाध्याय के अनुसार- ईसाई मिशनरियों ने मद्रास प्रान्त में हरिजनों के लिए कतिपय रात्रि-विद्यालयों की स्थापना की कुछ समय के बाद किसान भी उनमें शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाने लगे। मद्रास के बाद मिशनरियों ने बंगाल, बम्बई मध्य-प्रदेश और *संयुक्त प्रान्त में भी रात्रि-विद्यालय खोले।
2. हण्टर कमीशन का सुझाव-
सन् 1882 के हण्टर कमीशन’ ने अपने प्रतिवेदन में प्री-शिक्षा को स्थान दिया और बम्बई प्रान्त में 357 रात्रि-विद्यालयों का उल्लेख किया। इन विद्यालयों में वयस्कों को साधारण लिखना पढ़ना और अंकगणित सिखाया जाता था। इनकी लोकप्रियता में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही थी। अतः ‘कमीशन’ ने सरकार का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट किया और सुझाव दिया कि उपयुक्त स्थानों पर रात्रि-विद्यालयों के संचालन का कार्य आरम्भ किया जाये। किन्तु भारतीयों की शिक्षा के प्रति उदासीन अंग्रेजी सरकार ने इस सुझाव की पूर्ण उपेक्षा की।
3. भारतीयों के प्रयास
हण्टर कमीशन’ के सुझाव से प्रेरणा प्राप्त करके भारतीयों ने व्यक्तिगत रूप से अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। सन 1910 में बड़ौदा राज्य में सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ। सन् 1912 में मैसूर राज्य के दीवान श्री विश्वेश्वरैय्या ने इस राज्य में अनेक रात्रि-विद्यालयों का आयोजन किया। परन्तु धनाभाय और सरकार से आर्थिक सहायता न मिलने के कारण सन् 1917 तक उनकी संख्या निरन्तर क्षीण होती चली गयी।
4. क्रमबद्ध इतिहास का आरम्भ
भारत में प्रौढ़ शिक्षा का क्रमबद्ध इतिहास सन् 1919 से आरम्भ हुआ। इसके 3 मुख्य कारण थे-पहला, प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारत के अनेक निरक्षर सैनिक अन्य देशों के निवासियों के सम्पर्क में आये। ये वहाँ से नये विचार और ज्ञान की पिपासा लेकर स्वदेश लौटें। दूसरा, सन् 1919 के भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act) के फलस्वरूप भारतीय शिक्षा की बागडोर भारतीय शिक्षामन्त्री के हाथ में आ गयी। उन्होंने “शिक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया। तीसरा, उक्त अधिनियम’ के परिणामस्वरूप भारत की विशाल जनसंख्या को वयस्क मताधिकार प्राप्त हो गया। अतः प्रौढ़ शिक्षा की ओर उनका ध्यान जाना स्वाभाविक था, क्योंकि शिक्षा प्राप्त करके ही निरक्षर प्रौढ़ अपने मताधिकार का उचित प्रयोग कर सकते थे।
5. सन् 1919 से 1937 तक प्रौढ़ शिक्षा
सन् 1919 के अधिनियम ने भारत में दूध शासन की स्थापना की इस ‘अधिनियम’ के अनुसार शिक्षा हस्तान्तरित विषय था। अतः उसे जनप्रिय भारतीय मन्त्रियों को सौंप दिया गया। अपने देशवासियों के लिए वयस्क शिक्षा के महत्व से भली-भाँति अवगत होने के कारण, भारतीय मन्त्रियों ने अपने पदों को संभालते ही प्री-शिक्षा के व्यापक कार्यक्रमों का सूत्रपात किया।
ये कार्यक्रम विभिन्न प्रान्तों में समान एवं असमान रूपों में प्रकट हुए। सन् 1921 में पंजाब में “निरक्षरता निवारण आन्दोलन आरम्भ हुआ और रात्रि विद्यालयों का शिलान्यास किया गया। उसी वर्ष संयुक्त प्रान्त की सरकार ने रात्रि-विद्यालयों की स्थापना के लिए 6 नगरपालिकाओं को अनुदान दिया। सन् 1922 में बम्बई में 27 प्रौढ़-विद्यालयों का निर्माण किया गया। इसी प्रकार के विद्यालयों की बंगाल और मध्य प्रान्त में सृष्टि की गयी। सन् 1924 में श्रावणकोर की सरकार ने रात्रि-विद्यालयों को विधिवत स्वीकार करने के लिए कानूनों का निर्माण किया।
इस प्रकार देश के लगभग सभी प्रान्तों में भारतीय शिक्षामन्त्रियों ने प्रौढ़ शिक्षा का प्रसार करने में अदम्य उत्साह का प्रमाण दिया। फलस्वरूप सन् 1922 में प्रौढ़-विद्यालयों की जो संख्या 630 थी, वह सन् 1927 में बढ़कर 3,784 हो गयी। किन्तु सन् 1927 के विश्वव्यापी आर्थिक संकट ने प्रौढ़ शिक्षा के समक्ष धनाभाव की समस्या उपस्थित कर दी। परिणामतः उसके प्रसार में शिथिलता आ गयी और प्रौढ़-शालाओं की संख्या कम होकर सन् 1937 में 2,027 रह गयी। पर फिर भी यह कहना असंगत न होगा कि इस अवधि में प्रौढ़ शिक्षा के लिए जो चेष्टाएं की गयीं, उन्होंने उनको सुदृढ़ आधार प्रदान किया। सन् 1937 के उपरान्त जब परिस्थितियों ने करवट बदलीं, तब इसी आधार पर प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार का कार्य पुनः आरम्भ किया गया।
6. सन् 1937 से 1942 तक प्रौढ़ शिक्षा-
सन 1935 के भारत सरकार अधिनियम) (Government of India Act) के अनुसार देश में प्रान्तीय स्वशासन की स्थापना हुई। यह ‘अधिनियम’ सन् 1937 में क्रियान्वित किया गया और प्रान्त के समस्त विषय लोकप्रिय भारतीय मन्त्रियों के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत आ गये। परिस्थितियों के इस परिवर्तन ने प्रौढ़ शिक्षा में नव-जीवन का संचार किया और उसने समतल धरातल पर अपना अभियान आरम्भ किया। यह देखकर केन्द्रीय सरकार का ध्यान प्रथम बार प्रौढ़ शिक्षा की ओर गया। अतः उसने सन् 1939 में बिहार के शिक्षामन्त्री डॉ0 सैयद महमूद की अध्यक्षता में प्रौढ़ शिक्षा समिति (Adult Education Society) का निर्माण किया और उससे प्रौढ़ों को साक्षर बनाने के विषय में व्यावहारिक सुझाव देने को कहा।
सारांश में वर्ष 1937-42 की अवधि में भारतीय शिक्षामन्त्रियों ने भारतीय शिक्षा के साहित्य में ‘प्रौढ़ शिक्षा’ का नवीन अध्याय आरम्भ किया। उन्होंने अपने प्रान्तों में आय-व्यय (Budget) में प्रौढ़ शिक्षा को स्थान दिया। उन्होंने प्रौढ़-शालाओं, रात्रि-विद्यालयों, ग्रामीण पुस्तकालयों और चलते-फिरते पुस्तकालयों की व्यवस्था करके चिरस्मरणीय कार्य किया। इसलिए, जैसा कि डॉ. मुखोपाध्याय ने लिखा है- “यवार्थ में वर्ष 1937-42 की अवधि प्रौढ़ शिक्षा का स्वर्ण युग गिनी जा सकती है।”
7. सन् 1942 से 1947 तक प्रौढ़ शिक्षा-
इस अवधि में द्वितीय विश्व युद्ध का विशेष रूप से सन् 1942 के राजनीतिक आन्दोलन और ब्रिटिश दमन नीति का विषम प्रभाव प्रौढ़ शिक्षा पर भी पड़ा। इस नीति के परिणामस्वरूप सन 1942 से 1947 तक सभी प्रान्तों में प्रौढ़ शिक्षा के कार्य में शिथिलता आ गयी। इसका कारण बताते हुए डॉ. मुखोपाध्याय ने लिखा है- “मित्र भिन्न राज्य सरकारों ने अपने आय-व्यय की रकम को घटाकर सीमित क्षेत्र में तथा सीमित ढंग पर साक्षरता-प्रसार के कार्य को अंकित रहने दिया है।”
8. योजना से पूर्व प्रौढ़ शिक्षा (1947-1951)
इस अवधि में प्रौढ़ शिक्षा के सम्बन्ध में काफी छानबीन करके उसके भावी स्वरूप एवं कार्यक्रम को निश्चित किया गया। इसीलिए, इस अवधि को प्रौढ़ शिक्षा का अन्वेषणकाल (Period of Exploration) कहा जाता है।
इस अवधि में सर्वप्रथम सन् 1948 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने अपनी एक बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया कि स्वतन्त्र भारत में प्रौढ़ शिक्षा का पुनर्संगठन किया जाना आवश्यक हैं। भारत सरकार ने इस प्रस्ताव से सहमत होकर सन् 1948 में श्री मोहनलाल सक्सेना की अध्यक्षता में एक ‘समिति’ का गठन किया और उससे प्रौढ़ शिक्षा के पुनर्संगठन पर सुझाव देने को कहा।
इस ‘समिति’ का सर्वप्रथम सुझाब यह था कि प्रौढ़ शिक्षा की धारणा अत्यन्त संकुचित है। अतः उसके कार्य-क्षेत्र को व्यापक बनाने के लिए, उसे समाज-शिक्षा की संज्ञा दी जाये, ताकि वह देश के नागरिकों को नवीन सामाजिक व्यवस्था में सक्रिय भाग लेने की क्षमता प्रदान कर सके।
सरकार ने समिति का सुझाव का स्वागत किया। सन् 1949 में ‘केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ का 15वाँ अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ। उस अवसर पर भारत के तत्तकालीन शिक्षामन्त्री मौलाना आजाद ने उपस्थित सदस्यों को ‘प्रौढ़ शिक्षा’ के स्थान पर ‘समाज-शिक्षा’ शब्द के प्रयोग का सन्देश दिया।
उसी समय से केन्द्रीय एवं राज्य स्तरों पर समाज-शिक्षा के प्रसार के लिए विभिन्न कार्यक्रम संचालित किये गये,
केन्द्रीय स्तर पर-
दिल्ली में केन्द्रीय चलचित्र पुस्तकालय (Central Film Library) और ‘केन्द्रीय श्रव्य-दृश्य-संस्था’ (Central Audio Visual Institute) की स्थापना की गयी। ग्रामीण वयस्कों को शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ‘जनता कॉलेजों’ की सृष्टि की गयी। डेनमार्क के ‘लोक-विद्यालयों” (Folk Schools) की पद्धति पर मैसूर में ग्रामीण विद्यापीठों का निर्माण किया गया। सन् 1951 में ‘यूनेस्को’ के सहयोग से ‘दिल्ली सार्वजनिक पुस्तकालय’ (Delhi Public Library) में ग्रामीण वयस्कों के लिए चलते-फिरते पुस्तकालयों की योजना की गयी।
राज्य स्तर पर
मैसूर राज्य की ‘वयस्क शिक्षा समिति’ (Adult Education Council) ने वाचनालय सेवा का सूत्रपात किया। आन्ध्र प्रदेश और दिल्ली के जामिया मिलिया ने प्रौढ़ शिक्षा साहित्य के उत्पादन में श्लाघनीय कार्य किया। मद्रास में ‘फिरका विकास योजना’ (Firka Development Scheme) के अन्तर्गत शिक्षकों एवं युवक नेताओं पर प्रौढ़ शिक्षा के कार्य का उत्तरदायित्व रखा गया। उत्तरप्रदेश में भी इसी उदाहरण का अनुसरण किया गया। बिहार में प्रौढ़ शिक्षा को औपचारिक शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत स्थान दिया गया और विद्यालयों के शिक्षकों एवं पुस्तकालयाध्यक्षों को प्रौढ़ शिक्षा का कार्य सौंपा गया। पश्चिमी बंगाल में लोकगीतों, लोकनाटकों एवं भजन मण्डलियों द्वारा यह कार्य आरम्भ किया गया।
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