इब्राहिम लोदी कौन था? इब्राहिम लोदी के शासन काल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन कीजिए।

इब्राहिम लोदी कौन था? – सिकन्दर लोदी के मृत्यु के अवसर पर उसके सभी प्रायः सभी महत्वपूर्ण सरदार और पुत्र राजधानी में उपस्थित थे। सरदारों की सम्मति से यह निश्चय किया गया कि दिल्ली का सुल्तान इब्राहिम लोदी होगा और जौनपुर का सुल्तान उसका भाई जलालखा होगा। इस योजना के अनुसार सिकन्दर का सबसे बड़ा पुत्र इब्राहिम लोदी दिल्ली का सुल्तान बना। इब्राहिम लोदी वंश का अन्तिम शासक था। उसका शासन अपने भाई जलाल खाँ के संघर्ष से आरम्भ हुआ।

गृहनीति

सुल्तान बनने के अवसर पर इब्राहिम ने सरदारों की सलाह से अपने भाई जलालखों को जौनपुर का शासक स्वीकार कर लिया था। जलालखों अपने सहयोगी सरदारों के साथ कालपी की ओर रवाना हुआ। परन्तु इब्राहिम और दिल्ली के सरदार शीघ्र ही साम्राज्य के विभाजन के विरोधी हो गये। इब्राहिम ने तय किये गये समझौतों को भंग करके एक मात्र सुल्तान ने का निश्चिय किया। जलालखी कालपी पहुँच ही पाया था कि इब्राहिम ने हैबतखों के हाथों

एक सन्देश भेजकर उसे दिल्ली बुलाया उसने जौनपुर और बिहार के सरदारों को आदेश दिया कि वे जलाल खाँ की आज्ञा का पालन न करे और सुरक्षा की दृष्टि से उसने अपने अन्य भाईयों को कारागार में डाल दिया। जलालखों ने दिल्ली आने से इन्कार कर दिया और जब उसे यह पता लगा तब उसने स्वयं को कालपी में जलालुदीन के नाम से सुल्तान घोषित कर दिया। इसके बाद दोनों भाईयों में संघर्ष चला। अन्त में जलालखों गौड़ राजा की शरण में चला गया जहाँ के शासक ने उसे कैद करके इब्राहिम के पास भेज दिया। इब्राहिम ने उसे हॉसी के किले में कैद करने के लिए भेजा परन्तु मार्ग में ही उसे जहर देकर मरवा दिया। इस प्रकार इब्राहिम ने अपने भाई को समाप्त करके राज्य विभाजन को बचा लिया परन्तु इस संघर्ष से अनेक सरदारों में यह भावना उत्पन्न हो गयी कि इब्राहिम पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि दो बार इब्राहिम ने सरदारों द्वारा कराये गये समझौते को ठुकरा दिया था, अपने सभी भाइयों को कैद कर लिया था और जलाल खाँ को जहर देकर मरवा दिया था।

विदेशनीति

इब्राहीम लोदी की विदेश नीति विस्तारवादी थी। उसने अपने साम्राज्य का विस्तार कर ग्वालियर एवं मेवाड़ पर आक्रमण किया।

ग्वालियर विजय

सर्वप्रथम इब्राहिम ने ग्वालियर को जीतने की योजना बनायी। ग्वालियर के राजा द्वारा जलालखों को शरण देना इस अवसर पर उपयुक्त बहाना भी था। आजमख हुमायूँ सरवानी के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने ग्वालियर पर आक्रमण किया। उस समय तक ग्वालियर के राजा मानसिंह की मृत्यु हो गयी थी और उसका पुत्र विक्रमजीत वहाँ का राजा था। उसने साहसपूर्वक किले की सुरक्षा का प्रबन्ध किया परन्तु वह असफल हुआ और अन्त में उसने आत्मसमर्पण कर दिया। ग्वालियर पर इब्राहीम का अधिकार हो गया। परन्तु इब्राहीम ने उदारता से विक्रमजीत को शमसाबाद की जागीर दे दी।

मेवाड़ से संघर्ष

ग्वालियर की विजय से प्रोत्साहित होकर इब्राहिम ने मेवाड़ को जीतने की योजना बनायी। राजस्थान में मेवाड़ सबसे शक्तिशाली राज्य था और उसका शासक संग्राम सिंह एक महान योद्धा था। दिल्ली सल्तनत और मेवाड़ का झगड़ा मालवा के अधिकार को लेकर था। मालवा के प्रधान मन्त्री मेदिनीराय की शक्ति प्रबल हो गयी थी तथा मालवा के सुल्तान ने असहाय होकर गुजरात और दिल्ली के शासकों से सहायता माँगी थी। सिकन्दर लोदी ने अपने समय में उसकी सहायता के लिए एक सेना भेजी। परन्तु राणा संग्राम सिंह से सहायता प्राप्त करके मेदिनीराय ने गुजरात के शासक और सिकन्दरशाह के मालवा में हस्तक्षेप करने के प्रयत्नों को असफल कर दिया था। जलालखों के विद्रोह के अवसर पर राणा संग्राम सिंह ने दिल्ली सल्तनत के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था अब इब्राहीम एक सेना लेकर उसके विरूद्ध गया। ग्वालियर के निकट खतौती नामक स्थान पर एक युद्ध (1517-18 ई.) हुआ जिसमें पराजित होकर इब्राहीम को वापस लौटना पड़ा। राजा संग्राम सिंह ने अपना बायां हाथ खो दिया और उसकी एक टॉग घायल हो गयी परन्तु विजय उसी को प्राप्त हुई। एक वर्ष पश्चात 1518-19 ई. में इब्राहीम ने पुनः आक्रमण किया। धौलपुर के निकट हुए इस युद्ध में भी दिल्ली की सेना की पराजय हुयी। इसके पश्चात भी मेवाड़ और दिल्ली के विभिन्न युद्ध हुए परन्तु उनमें अधिकांशतया दिल्ली की सेना ही पराजित हुई इस प्रकार इब्राहिम के समय में दिल्ली और मेवाड़ में निरन्तर संघर्ष चलता रहा जिससे लाभ राजपूतों को मिला और राणा ने बयाना तक अपने राज्य का विस्तार करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार मेवाड़ से युद्ध करने में इब्राहीम को असफलता और अपमान मिला तथा उसकी सैनिक शक्ति दुर्बल हुई।

सरदारों से संघर्ष

इब्राहीम के शासन काल की मुख्य घटना मुल्तान और उसके अफगान सरदारों का संघर्ष था। इसके लिए एक तरफ सुल्तान इब्राहीम का निरंकुश राजतन्त्र की स्थापना का प्रयत्न और उसकी सन्देही प्रकृति तथा दूसरी तरफ तरफ अफगान सरदारों की स्वतन्त्रता और समानता की भावना एवं अपनी सुरक्षा के सुल्तान की तरफ से आशंकित होना था। इब्राहीम ने स्वेच्छाचारी तुर्की सुल्तानों के समान व्यवहार करना आरम्भ किया उसका विश्वास था कि सुल्तान का कोई सम्बन्धी नहीं होता और राज्य के सरदार उसके सेक्क मात्र होते है। उसने राज्य के अमीरों को अपने सम्मुख हाथ बाँधकर खड़े होने की आज्ञा दी। जलालखों के विद्रोह के कारण वह अमीरों की तरफ से शंकित हो गया और अपने पिता के समय के सभी सरदारों को समाप्त करने का निश्चय कर उन्ही अफगान सरदारों को समाप्त करने का प्रयत्न किया जिस पर उसके राज्य की शक्ति निर्भर करती थी।

जलालखाँ के विद्रोह के अवसर पर सुल्तान और उसके अफगान सरदारों में सन्देह के कारण उपस्थित हो गये थे। इस लिए सुल्तान भी अपने सरदारों के प्रति शंकित रहने लगा। उसने अपने वजीर मियाँ आ को भी कारागार में डाल दिया और उससे भी बड़ी भूल यह की कि उसी के पुत्र को अपना वजीर बना लिया। जिसका वृद्ध पिता कारागार में हो उससे वफादारी की आशा करना मूर्खता थी। अपने भाइयों के प्रति सुल्तान का व्यवहार क्रूरतापूर्ण था। जलालखों को जहर देकर मरवा दिया गया और महमूद के अतिरिक्त उसके सभी भाई कारगार में मर गये। इसके अतिरिक्त उसने पुराने सरदारों के स्थान पर नये छोटे सरदारों को बड़े-बड़े पदों पर रखना आरम्भ कर दिया। उसके इन कार्यों ने अनेक सरदारों को असंतुष्ट कर दिया। आजम हुमायु को कारागार में बन्द करने से यह असंतोष फूट पड़ा। आजम हुमायूँ के बड़े पुत्र इस्लाम खाँ ने कड़ी में विद्रोह कर दिया। आलम हुमांयू लोदी एवं सईद लोदी भी सुल्तान का साथ छोड़कर इस्लाम खाँ से जा मिले। यह विद्रोह कड़ा से कन्नौज तक फैल गया। विद्रोहियों ने सुल्तान द्वारा भेजी गयी एक सेना पर धोखे से आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया। इब्राहीम स्वयं भी युद्ध करने के लिए गया। इस युद्ध में इब्राहीम की विजय हुई इस्लाम खाँ मारा गया। सईद खाँ और अनेक सरदार कैद कर लिए गये। इब्राहीम ने सरदारों की शक्ति नष्ट करने में सफलता प्राप्त की। परन्तु इस युद्ध में सेना के सर्वाधिक साहसी शूरवीर मारे गये और अफगानों की शक्ति दुर्बल हो गयी।

राजतरंगिणी के ऐतिहासिक महत्व पर टिप्पणी लिखिए।

इस युद्ध के पश्चात इब्राहीम ने शेख हसन करमाली के वध की आज्ञा देकर एक और मूर्खतापूर्ण कार्य किया। इससे अनेक अफगान सरदारों को यह विश्वास हो गया कि सुल्तान उनमें से प्रत्येक को नष्ट करने पर तुला हुआ है। जो सरदार उस समय इब्राहीम पर वफादारी से सेवा कर रहे थे वे भी उसके प्रति शंकालू हो गये। इस कारण बिहार के सूबेदार दरियाखों नूहानी तथा खान-ए-जहाँ लोदी ने पूर्व में विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही दरिया खाँ नूहानी की मृत्यु हो गयी। परन्तु उसके पुत्र बहादुर खाँ (बहार खाँ) बिहार में स्वयं को स्वतन्त्र शासन घोषित करके सुल्तान मुहम्मद की उपाधि ग्रहण कर ली। गाजीपुर का सूबेदार नसीर खाँ नूहानी और अनेक असंतुष्ट सरदार मुहम्मद से जा मिले। उसकी सेना में एक लाख घुड़सवार हो गये और उसने बिहार से लेकर सम्भल तक के सम्पूर्ण क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोदी ने भी विद्रोह कर दिया। उसका पुत्र गाजी खाँ ने अपने पिता को सावधान कर दिया था कि यदि इब्राहीम बिहार का विद्रोह दबाने में सफल हुआ तो वह आपको भी लाहौर से वंचित कर देगा। फलतः दौलत खाँ लोदी ने सुल्तान इब्राहीम की सहायता के लिए जाने के स्थान पर काबुल के शासक बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।

इसी समय इब्राहीम के चाचा आलम खाँ लोदी ने जो सिकन्दरशाह के विरूद्ध विद्रोह करने के बाद गुजरात के शासक की शरण में था बाबर से सहायता मांगी और काबुल गया। बाबर ने जो पहले से ही भारत पर आक्रमण करने की इच्छा में था इसे एक सुअवसर समझा और 1524 ई. में उसने लाहौर तक आक्रमण किया तथा इब्राहीम की एक सेना को परास्त करने में सफलता पायी। परन्तु लाहौर में अपने सरदारों को नियुक्त करके बाबर भारत से वापस चला गया। दौलत खाँ लोदी ने जो बाबर की ओर से शंकित हो गया था। आलम खाँ लोदी से एक समझौता करके 1525 ई. में दिल्ली पर आक्रमण किया पर इब्राहीम ने उन दोनों को परास्त कर दिया। नवम्बर 1525 ई. में बाबर भारत विजय के लिए काबुल से चला। दौलत खाँ और आलम खाँ उससे मिल गये। परिणामस्वरूप 21 अप्रैल, 1526 को बाबर और इब्राहीम ने पानीपत का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। जिसमें इब्राहीम लोदी हारा और मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ ही दिल्ली सल्तनत का भी अवसान हो गया।

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