जाति और वर्ग में अन्तर
जाति और वर्ग में अन्तर सामाजिक वर्गों की उपर्युक्त प्रकृति से स्पष्ट होता है कि जाति और वर्ग सामाजिक स्तरीकरण के दो प्रमुख आधार होने के कारण समाजशास्त्रीय अध्ययन में समान रूप से महत्वपूर्ण है। सामान्य रूप से वर्गों की प्रकृति जितनी खुली हुई समझ ली जाती है, यह वास्तव में उतनी खुली हुई नहीं होती। प्रत्येक वर्ग अपने से निम्न वर्ग के सदस्य को अपने वर्ग में आने से रोकता है और उससे अपने ही वर्ग के अनुरूप कार्य करने की प्रत्याशा रखता है। व्यावहारिक रूप से विभिन्न वर्गों के बीच भी ‘ वर्ग अन्तविवाह’ की नीति अपनायी जाती है। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने विशेषकर हिलर ने तो जाति और वर्ग में कोई भी मौलिक भेद स्वीकार नहीं किया है। इसके उपरांत भी सच यह है कि अपनी प्रकृति, कार्यों और निषेधों में जाति और वर्ग एक-दूसरे से भिन्न धारणाएं हैं, जिसे निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है:
(1) जाति बंद है, जबकि वर्ग में खुलापन है-
जाति जन्म पर आधारित होती है। कोई भी व्यक्ति एक जाति को छोड़कर दूसरी जाति की सदस्यता ग्रहण नहीं कर सकता। प्रत्येक जाति के नियम भी दूसरी जातियों से भिन्न होते हैं। इसके विपरीत वर्ग की सदस्यता का द्वार सभी के लिए खुला हुआ है। एक व्यक्ति अपनी सम्पत्ति, योग्यता और कुशलता के अनुसार किसी भी वर्ग का सदस्य हो सकता है तथा जीवन में अनेक बार उसकी वर्गगत सदस्यता में परिवर्तन हो सकता है।
(2) जाति जन्म पर आधारित है, वर्ग कर्म पर-
उपर्युक्त अंतर से स्पष्ट हो जाता है। कि जाति की सदस्यता का आधार जन्म है। व्यक्ति एक बार जिस जाति में जन्म लेता है, आजीवन उसी जाति का सदस्य बना रहता है लेकिन वर्ग की सदस्यता व्यक्ति के कार्यों और प्रयत्नों पर आधारित है। अच्छे कार्य उसे उच्च वर्ग की सदस्यता दिला सकते हैं और बुरे कार्य उसे वर्ग व्यवस्था में नीचे की ओर ले जा सकते है।
(3) जाति प्रदत्त है, जबकि वर्ग की सदस्यता अर्जित है-
किसी भी व्यक्ति को जाति की सदस्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करना नहीं पड़ता, बल्कि यह समाज की ओर से उसे अपने आप प्राप्त हो जाती है। यही कारण है कि जाति अधिक स्थिर होती है, अर्थात् व्यक्ति की अज्ञानता, निर्धनता, रुचि या अरुचि का इसकी सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरी ओर वर्ग की सदस्यता पूर्णतया व्यक्ति के निजी प्रयत्नों का फल है और इन प्रयत्नों में परिवर्तन होने से वर्ग की सदस्यता में भी परिवर्तन हो जाता है।
(4) जातियों के व्यवसाय निश्चित है, वर्गों के नहीं-
प्रत्येक जाति का एक परम्परागत व्यवसाय होता है जिसको करना ही उस जाति के सदस्यों का नैतिक कर्त्तव्य है, लेकिन वर्ग-व्यवस्था में कोई सदस्य अपनी रुचि के साधनों के अनुसार किसी भी व्यवसाय के द्वारा आजीविका उपार्जित कर सकता है।
(5) जाति अन्तर्विवाही होती है, वर्ग नहीं
प्रत्येक जाति आवश्यक रूप से अपने सदस्यों को अपनी ही जाति के अन्तर्गत विवाह सम्बन्ध करने का आदेश देती है। इसके विपरीत, वर्ग में इस प्रकार का कोई निश्चित नियम नहीं होता। यह जरूर है कि सामान्यतया एक वर्ग के सदस्य अपने वर्ग के सदस्य से ही विवाह सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं लेकिन इस सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं पाया जाता।
(6) वर्ग की उच्चता का आधार आर्थिक है, जाति का सामाजिक
मार्क्स तथा कुछ अन्य विचारकों ने उच्च अथवा निम्न वर्ग की सदस्यता का आधार व्यक्ति की आर्थिक स्थिति बतायी है। आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होने के साथ ही वर्ग की सदस्यता में भी अपने आप ही परिवर्तन हो जाता है। इसके विपरीत जाति व्यवस्था पूर्णतया एक सामाजिक तथ्य है जिसमें आर्थिक आधार पर व्यक्ति की स्थिति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता।
(7) जाति एक सांस्कृतिक संस्था है, वर्ग नहीं
विभिन्न जातियों के निर्माण का आधार अनेक धार्मिक तथा सांस्कृतिक विश्वास है। इस दृष्टिकोण से जाति, पवित्रता तथा अपवित्रता सम्बन्ध बहुत से नियमों की एक व्यवस्था है। वर्ग-व्यवस्था में पवित्रता अथवा अपवित्रता सम्बन्धी किसी प्रकार के विश्वासों का समावेश नहीं होता। यह पूर्णतया व्यक्ति के वर्तमान जीवन को महत्व देती है, किसी प्रकार के पारलौकिक जीवन को नहीं।
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