जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

जेण्डर समाजीकरण

जेण्डर समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी बनाती है। इस प्रक्रिया के अभाव में व्यक्ति सामाजिक प्राणी नहीं बन सकता। इसी से सामाजिक व्यक्तित्व का विकास होता है। सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत के तत्वों का परिचय भी इसी से प्राप्त होता है। समाजीकरण से न केवल मानव जीवन का प्रभाव अखण्ड व सतत रहता है, अपितु इसी से मानवोचित गुणों का विकास होता है और व्यक्ति सुसम्य व सुसंस्कृत भी बनता है। समाजशास्त्रियों, समाजज्ञानिक मानवत्रियों तथा शिक्षाशास्त्रियों द्वारा समाजीकरण शब्द का प्रयोग उस प्रक्रिया के लिए किया जाता है जिसके द्वारा आदर्श, प्रथाओं एवं विचारधाराओं का आन्तरीकरण होता है। इसी के माध्यम से व्यक्ति में ये क्षमताएँ एवं आदतें विकसित होती हैं जो समाज में रहने के लिए अनिवार्य मानी जाती हैं। इस प्रक्रिया के माध्यम से प्रत्येक समाज अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक निरन्तरता को बनाए रखता है। समाज के मूल्यों एवं आदर्शों का आन्तरीकरण भी सीख की इसी प्रक्रिया के माध्यम से होता है सीखने की यही प्रक्रिया समाजशास्त्र में समाजीकरण कही जाती है।

यहाँ जेण्डर विकास की प्रक्रिया में समाजीकरण की प्रकृति को समझाने का प्रयास किया जाएगा

(1) समाजीकरण की प्रकृति और जेण्डर

परिवार में एक बच्चे के साथ उसके लिंगानुसार अलग-अलग व्यवहार किया जाता है, क्योंकि परिवार में ही बच्चों को सर्वप्रथम अपने जेण्डर के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है। उसके जेण्डर के आधार पर ही उसका विकास किया जाता हैं और उसे उसी प्रकार के खिलौने, कपड़े आदि प्रदान किए जाते हैं। इस प्रकार से माता-पिता द्वारा बचपन से ही यह अवधारणा बालक के हृदय में उत्पन्न कर दी जाती है कि जीवन में उसकी किस प्रकार की भूमिका होगी, क्योंकि हमारे पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुषों का समाजीकरण बिल्कुल अलग ढंग से किया जाता है। पुरुषों से यह आशा की जाती है कि उनमें पुरुषोचित गुण

पूरी तरह से विकसित हों, जैसे स्वतन्त्रता, आत्मनिर्भरता, प्रभावी संक्रियता, सांसारिकता, निर्णय लेने की क्षमता, नेतृत्व का गुण, स्वावलम्बन, तार्किकता, प्रतियोगिता आदि। इसका कारण यह है कि इन गुणों से युक्त पुरुषों पर ही समाज गर्व करता है तथा किसी नारी में यह गुण उत्पन्न होने पर समाज द्वारा पौरुषीय गुण वाली स्त्री बताकर उसमें परिवर्तन लाने के लिए समाज दबाव बनाता है।

(2) परिवार में निजी एवं सार्वजनिक द्विविभाजन

आधुनिक समाज में निजी एवं सार्वजनिक रूप से भी जेण्डर के आधार पर द्विविभाजन पाया जाता है। आजकल के समाज में महिलाओं एवं पुरुषों दोनों में प्रत्येक क्षेत्र में, जैसे कार्य क्षेत्र, कार्य के वेतन, निर्णय क्षमता, – नेतृत्व की क्षमता आदि सभी में भेदभाव किया जाता है। प्रत्येक समाज में महिलाओं के लिए अलग से व्यवहार प्रतिमानों की रचना की गई हैं। इसलिए उनसे यह आशा की जाती है कि वे घर की चारदीवारी में रहकर परिवार के और उसके सदस्यों के विकास में ही अपना जीवन समर्पित कर दें।

इस प्रकार सियों में स्वतन्त्र विचार करने की क्षमता का विकास ही नहीं होने दिया जाता। नारी को स्वयं के विकास के लिए कुछ भी समय निकालो की प्रेरणा न देकर उनको अपना जीवन परिवार के विकास में लगाने की ही प्रेरणा परिवार व समाज द्वारा दी जाती है। जबकि पुरुषों से आशा की जाती है कि वे घर से बाहर निकलकर अपना और समाज का विकास करें। इस प्रकार यदि देखा जाए तो सभी सामाजिक बन्धन, रीति-रिवाज रूढ़ियाँ आदि केवल महिलाओं के लिए ही हैं। हमारे पुरुष प्रधान समाज में पुरुष वर्ग पूरी तरह से आज स्वच्छन्द जीवन जीने के लिए स्वतन्त्र है।

(3) परिवार में जेण्डर भूमिका –

समाज में नर-नारी के समाजीकरण का एक आधार यह भी है कि पुरुष बच्चों के लालन-पालन की कोई भी जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेते हैं। परिवार में बच्चे के लालन-पालन की पूर्ण जिम्मेदारी महिला को ही सौंप दी जाती है। यह भी कहा गया है कि एक बच्चे को समाज के अनुरूप बनाने में महिला की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. क्योंकि महिला ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अपने गुणों को स्थानांतरित करती है। समाज में एक बालक का समाजीकरण करने में वस्तुतः माँ की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है और मो ही बच्चे की प्रथम शिक्षिका होती है, क्योंकि बालक को समाज के मानदण्डों का पालन करने की और उन बातों को नहीं करने की जो समाज के प्रतिकूल है, शिक्षा परिवार में केवल माँ ही देती है।

(4) समाजीकरण की दृष्टि से नारी की भूमिका

हिन्दू परिवारों में महिलाओं को न तो किसी प्रकार का कोई निर्णय लेने का अधिकार दिया जाता है और न ही घर की चारदीवारी के बाहर ही क्रियाओं में किसी प्रकार से भाग लेने का अधिकार ही उन्हें दिया जाता है। यही नहीं महिलाओं से आशा की जाती है कि वे अपने अधिक से अधिक समय को गृहकार्य में ही व्यतीत करें। समाज उनके व्यवहार में कुछ ऐसे गुणों की आशा करता है कि महिलाओं में सहनशीलता, समर्पण, परोपकारिता आदि जैसे गुण अवश्य होने चाहिए।

(5) समाज में स्तरीकरण

समाज में स्तरीकृत एवं सोपानीकृत व्यवस्था का प्रचलन रहा है, क्योंकि कोई भी समाज चाहे वह आदिम समाज हो या चाहे आधुनिक समाज हो, इसकी व्यवस्था के अपवाद नहीं है। स्तरीकृत समाज के आधार भी हमेशा समान नहीं रहे है, क्योंकि यह हमेशा इस आधार पर अवलम्बित रहे हैं कि किसी समाज के प्राथमिक मूल्य क्या है? स्तरीकरण की इस प्रक्रिया ने ही हमारे समाज को वर्ग, जाति आदि घटकों में सीमित कर दिया है। इसीलिए समाज में अनेक स्तरों की रचना हुई है। इस सामाजिक स्तरीकरण में भी महिलाओं को पुरुषों से अलग का ही स्तर दिया गया है। अतः जेण्डर के आधार पर समाज में नारी की भूमिकाएँ भी अलग-अलग निर्धारित की गई हैं, जिनके माध्यम से नारी की प्रस्थिति, भूमिका, पहचान, सोच, मूल्य एवं अपेक्षाओं को मानसिक रूप से गढ़ा है।

संयुक्त परिवार का भविष्य क्या है?

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि समाजीकरण पर भी जेण्डर का बहुत अधिक प्रभाव है. क्योंकि एक पुरुष का समाजीकरण इस प्रकार से होता है कि यह स्वयं जागरूक बने तथा स्वयं के विकास के विषय में अधिक से अधिक सोचे, जबकि स्त्री का समाजीकरण इस प्रकार से किया जाता है कि उसके परिवार के सदस्यों की उन्नति में ही उसकी भी उन्नति है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि समाज में विद्यमान इस प्रकार के द्विविभाजन को कम किया जाए और महिलाओं को भी पुरुषों के समान आगे बढ़ने और देश एवं समाज के लिए कुछ करने के अवसर दिए जाने चाहिए ताकि समाज में महिलाओं को भी सशक्त भूमिका निभा सकने योग्य बनने की समुचित प्रेरणा दी जा सके।

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