मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्तियों को मनुष्य होने के नाते जन्म से प्राप्त है। मानवाधिकारों की धारणा हॉब्स लॉक, व रूसों जैसे विचारकों की ‘प्राकृतिक अधिकारों’ की धारणा पर आधारित है। प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्ति को राज्य से पूर्व (प्राकृतिक अवस्था) में जन्म से प्राप्त है। अतः ये अधिकार राज्य द्वारा छीने नहीं जा सकते हैं। मानव अधिकारों की धारणा को अमेरिका स्वतन्त्रता में घोषित समानता के अधिकार 1776 तथा फ्रांसीसी क्रान्ति 1789 में घोषित स्वतन्त्रता समानता तथा भाई चारे की धारणाओं से बल प्राप्त हुआ। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम 10 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को पारित किया, इसलिए 10 दिसम्बर को प्रतिवर्ष मानवाधिकार दिवस के रूप में मानाया जाता है।
हमारे देश में अक्टूबर 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया इसमें एक अध्यक्ष तथा कुछ अन्य सदस्य होते हैं। अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति को अध्यक्ष व इसके अन्य सदस्यों के नामों की संस्तुति एक समिति करती है जिसमें प्रधानमंत्री (अध्यक्ष) केन्द्रीय गृह मन्त्री, लोक सभा अध्यक्ष, राज्य सभा का उपसभापति, लोकसभा तथा राज्य सभा के विपक्ष के नेता होते हैं।
मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। इन्हें मात्र भारत के राष्ट्रपति द्वारा इनके पद से हटाया जा सकता है किन्तु उसे राष्ट्रपति तभी हटा सकता है जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने सम्बन्धित सदस्य या अध्यक्ष के विरुद्ध अक्षमता या दुर्व्यवहार की पुष्टि कर दी हो।
नियमानुसार इसका अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय का सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही होता है। इसके मुख्य कार्य हैं –
- मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतों की जाँच करना,
- मानवाधिकार के क्षेत्र में अध्ययन व शोध को बढ़ावा देना,
- जेल तथा अन्य बन्दीगृहों का दौरा करना तथा बन्दियों की जीवन परिस्थितियों की जाँच करना,
- मानवाधिकार के क्षेत्र में कार्यरत गैर-सरकारी संस्थाओं को प्रोत्साहन देना। जाँच के उपरान्त आयोग अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप देता है जिस पर सरकार द्वारा कार्यवाही की जाती है।
मानव के नैतिक अधिकार
(1) जीने का अधिकार
मानव का प्रथम अधिकार जीने का अधिकार है। आत्म लाभ परम शुभ है, जिसके लिए जीवन की निर्बाध गति जरूरी है। जीने का अधिकार पहला अधिकार है। जीवन की पवित्रता को स्वीकार करना चाहिए।
परन्तु मानव जाति के इतिहास में इसके मौलिक अधिकार को भी धीरे-धीरे मान्यता दी गई। प्राचीन समय में कुछ देशों में बच्चों की प्रायः हत्या कर दी जाती थी, विधवाओं को जला दिया जाता था. विधर्मियों को मार डाला जाता था तथा युद्ध के कैदियों को मृत्यु दण्ड दे दिया जाता था। आज भी द्वन्द्व वैध माना जाता है तथा युद्ध के रूप में सामूहिक मानव-वघ निन्दा नहीं माना जाता।
जीने के अधिकार में काम करने का अधिकार भी सन्निहित है। अगर किसी मानव को काम नहीं मिलता तो यह जीविकोपार्जन नहीं कर सकता।
जीने के अधिकार के साथ अपने तथा दूसरों के जीवन को पवित्र समझने का कर्तव्य भी है। हमें अपने जीवन को खत्म नहीं करना चाहिए बल्कि दूसरे व्यक्ति का जीवन भी हमें नहीं लेना चाहिए। हमें अपने और दूसरों के जीवन की वृद्धि करनी चाहिए। जो दूसरों की जान लेता है, नियमानुसार उसकी भी जान ली जा सकती है।
(2) स्वतन्त्रता का अधिकार
जीने के अधिकार के बाद दूसरा अधिकार स्वतन्त्रता का है। आत्म-लाभ सर्वोच्च शुभ है। उसकी सिद्धि व्यक्ति की इच्छा से होती है। इस प्रकार व्यक्ति को अपने परम मंगल की प्राप्ति के लिए अपने संकल्प का उपयोग करने हेतु आजाद होना चाहिये। उसके ऊपर दूसरों के द्वारा बल-प्रयोग नहीं होना चाहिए। उसे किसी का दास नहीं होना चाहिए। स्वतन्त्रता का अर्थ सीमित स्वतन्त्रता है। अभियन्त्रित तथा पूर्ण स्वतन्त्रता या स्वैच्छाचार दुराचार का कारण है। एक सुव्यवस्थित समाज में व्यक्ति को अपने संकल्प के स्वतन्त्र उपयोग से अपने परम ध्येय की प्राप्ति का अधिकार उसी सीमा तक होना चाहिये जहाँ तक वह समाज व्यवस्था को स्थिर रखने का विरोधी नहीं है। पूर्ण स्वतन्त्रता का अर्थ अराजकता है। स्वतंत एक सुव्यवस्थित राज्य में प्राप्त होती है। स्वतन्त्रता के अधिकार के साथ उसे सामान्य शुभ हेतु उपयोग किये जाने का कर्तव्य भी है।
(3) समझौते को पूरा करने का अधिकार
समझौते को पूर्ण करने को अधिक – भी एक महत्वपूर्ण अधिकार है। सम्पत्ति के अधिकारों से समझौते के अधिकारों की उत्पत्ति होती है। “सम्पत्ति पर मेरा स्वत्व है। मैं उसके उपभोग, विनिमय आदि के लिए स्वतन्त्र हूँ।” अगर एक मानव दूसरे मानव से उसकी कोई सेवा करने का समझौता करता है तो दूसरे को उन सेवाओं की स्वीकार करने का अधिकार है। आरम्भिक समाजों में जिनमें व्यक्ति के कोई अपने अधिकार नहीं थे, इस अधिकार को मान्यता नहीं दी गई थी। समझौते के अधिकार के साथ ही एक न्यायोचित समझौता करने का भी नैतिक कर्तव्य है जिसे उचित रूप से पूरा किया जा सके मानव को खुद को क्रीत दास बनाने का समझौता करने का अधिकार नहीं है। समझौता का अधिकार सबसे अधिक उन्नत समाज में ही सम्भव है जो उसके औचित्य का आश्वासन दे सकता है।
(4) सम्पत्ति को रखने का अधिकार –
सम्पत्ति रखने का अधिकार आजादी के अधिकार का अवश्यम्भावी परिणाम है। आत्म लाभ परम शुभ है। व्यक्ति को आत्म लाभ की प्राप्ति उसी समय हो सकती है जब उसे जीवित रहने, काम करने तथा अपने संकल्प का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग करने का अधिकार हो। इच्छा-स्वातन्त्र्य का प्रभावपूर्ण उपयोग तभी हो। सकता है, अगर उसे अपने से स्वतन्त्रापूर्वक अर्जित सम्पत्ति का उपयोग करने दिया जाए। व्यक्ति सम्पत्ति के साथ है। बिना ‘ममत्व’ की भावना के ‘अहम्’ भावना का विकास असम्भव है। इस प्रकार व्यक्तित्व का विकास कुछ सम्पत्ति के स्वतन्त्र उपयोग से ही सम्भव है। सम्पत्ति के स्वामी होने की प्रवृत्ति मानव स्वभाव में इतनी गहराई तक प्रविष्ट है कि उनका उन्मूलन नहीं हो सकता। समाज या राज्य को सिर्फ उसे सीमित करना चाहिए।
व्यक्तियों को उन साधनों का अधिकार है जिन्हें वह अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग कर सकता है। सम्मिलित सम्पत्ति से ऐसा कर सकना उनके लिये नामुमकिन है। समाज से अपने व्यक्तिगत सदस्यों को समानता तथा न्याय के आधार पर सम्पत्ति का अधिकार व्यक्ति तथा समाज के सर्वोच्च शुभ की प्राप्ति हेतु मिलना चाहिए। सम्पत्ति के अधिकार के साथ सामाजिक कल्याण हेतु उसका बुद्धिमता के साथ प्रयोग करने का कर्तव्य भी है।
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(5) शिक्षा का अधिकार
अन्तिम अधिकार शिक्षा का अधिकार है। यहाँ पर अधिकार तथा कर्त्तव्य परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक व्यक्ति को यथा-शक्ति उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। वह अपनी योग्यता के अनुरूप सर्वोत्तम शिक्षा पाने हेतु नैतिक दृष्टि से बाध्य है। एक समुन्नत समाज से प्रत्येक को अपनी अव्यक्त शक्तियों को पूर्णतया व्यक्त करने के लिये तथा सामान्य कल्याण हेतु ज्यादा से ज्यादा अवसर दिये जाने चाहिए। शिक्षा बुद्धि का विकास करती है तथा बौद्धिक-जीवन का विस्तार करती है।
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