मानव संसाधन विकास का अर्थ और उसके लिए शिक्षा पर एक लेख लिखिए।

मानव संसाधन विकास के लिए शिक्षा

मानव संसाधन विकास के लिए शिक्षा उत्पादन के अनेक साधन होते हैं जिनमें पूंजी एक महत्वपूर्ण साधन है, पूँजी तीन प्रकार की होती है। प्रथम भौतिक पूँजी जैसे कोई मशीन जिससे कारखाने में उत्पादन किया जाता है या खेत में ट्रैक्टर द्वितीय, मानवपूँजी जैसे शिक्षा प्राप्त मनुष्य और तृतीय वित्तीय पूँजी जो कि भौतिक और मानवीय पूंजी का मुद्रा सम्बन्धी रूप होती है। देश की उत्पादकता बढ़ाने की दृष्टि से मानवपूँजी का उन्नत होना अति आवश्यक है। इसके लिए व्यक्तियों को अधिक-से-अधिक तथा विभिन्न प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए। देश का आर्थिक विकास केवल प्राकृतिक साधनों और भौतिक पूँजी पर ही आधारित नहीं होता बल्कि उसका वास्तविक कारण है ‘मनुष्य’ जिसके द्वारा भौतिक साधनों का उत्पादन सम्भव होता है। शिक्षा प्रणाली की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके द्वारा कितनी उन्नत मानव पूंजी का निर्माण हुआ अर्थात् स्त्रियों और पुरुषों की व्यावसायिक निपुणता, उनकी योग्यता, बौद्धिक विकास, उनका चरित्र तथा उनका सांस्कृतिक स्तर आदि की महत्ता स्पष्ट करते हुए मार्शल महोदय ने कहा कि, “मनुष्यों पर लगाई गई पूँजी अन्य सभी पूँजियों की अपेक्षा सर्वाधिक उपयोगी होती है।”

मानव संसाधन विकास की अवधारणा वास्तव में मानव आज एक पूँजी, साधन और संसाधन है। उसे शिक्षा देकर हम देश के मानव संसाधन का विकास करते हैं। कुछ वर्ष पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम शिक्षा मंत्रालय था, जो शिक्षा के विभिन्न अंगों का काम देखता था। लेकिन बाद में यह माना जाने लगा कि जैसे धन एक पूँजी है, साधन है उसी प्रकार मानव भी एक पूँजी है, साधन है संसाधन है। इसीलिए शिक्षा मंत्रालय का नाम ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ कर दिया गया। ज्ञान-ज्ञान के लिए है या शिक्षा शिक्षा के लिए है का नारा सर्वमान्य सिद्धांत बना हुआ था। बालक के चारित्रिक विकास, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए शिक्षा देने की परम्परा थी। पहले शिक्षा का मूल्य स्वयं शिक्षा में ही निहित था। शिक्षा को अनुत्पादक क्रिया माना जाता था। लेकिन शिक्षा के प्रचार-प्रसार होने नामांकन संख्या बढ़ने, व्यय में वृद्धि होने, केन्द्र और राज्य को शिक्षा पर अधिक धन व्यय करने आदि की प्रक्रिया के कारण अनेक शिक्षाशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों का ध्यान इस ओर केन्द्रित हुआ। अर्थशास्त्र की वर्तमान धारणा में मनुष्य की उन क्रियाओं के अध्ययन को प्रमुखता दी गई है। जिसका सम्बन्ध धन से हो। इसमें मानव की धन सम्बन्धी सामाजिक क्रियाओं की प्रधानता है। मनुष्य समाज में रहता है। समाज में रहने के कारण उसकी अनेक आर्थिक समस्याएँ होती हैं। इन आर्थिक समस्याओं का विश्लेषण अर्थशास्त्र में होता है। आजकल शिक्षा के अर्थशास्त्र का विकास हो रहा है। व्यक्ति और समाज को ख्याली पुलाव से तो प्रगति एवं समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर नहीं किया जा सकता बल्कि यह तो किसी देश व समाज की ‘सामाजिक आर्थिक

परिस्थितियाँ स्वयं तो व्यक्ति व समाज को प्रगति, समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर नहीं कर देती बल्कि इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि सामाजिक एवं आर्थिक नियोजन द्वारा उन्हें वांछित एवं लाभपूर्व दिशा की ओर अग्रसर किया जाये ताकि उनके द्वारा व्यक्ति एवं समाज की प्रगति व उन्नति हो सके।

सामाजिक और आर्थिक नियोजन को साकार रूप देने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति करना आवश्यक है। यह प्रगति शैक्षिक नियोजन द्वारा ही सम्भव है।

शैक्षिक नियोजन

शैक्षिक नियोजन का तात्पर्य उस शैक्षिक प्रक्रिया व शैक्षिक B कार्य से है जिसमें किसी सत्ता द्वारा समस्त शैक्षिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था के व्यापक सर्वेक्षण’ या छानबीन के आधार पर यह निर्णय लिया जाता है कि शिक्षा प्रत्येक स्तर पर कैसे,कौनसी कितनी और किस रूप में दी जाये और उसका प्रसार किन लोगों के बीच किया जाये कि उसका वांछित संख्यात्मक और गुणात्मक विकास हो । अब प्रश्न यह उठता है कि नियोजन वास्तव में है क्या? इस सन्दर्भ में निम्न परिभाषाएं दी जा सकती हैं। नियोजन का शाब्दिक अर्थ पहले से व्याख्या करना है।

प्रो. एस.ई. हैरिस के अनुसार, “सामान्यतः नियोजन साधनों के मूल्य एवं अप प्रवाह के संदर्भ में साधनों के आवंटन का प्रतिस्थापन नियोजन अधिकारी द्वारा निर्धारित उद्देश्यों के आधार पर साधनों के आवंटन से करता है।

श्री विट्ठल बाबू के अनुसार, “किसी राष्ट्र की वर्तमान भौतिक, मानसिक तथा प्राकृतिक शक्तियों व साधनों को जनसमूह के अधिकतम लाभार्थ विवेकपूर्ण उपयोग करने की कला को नियोजन कहते हैं।

” योजना आयोग के अनुसार, “नियोजन साधनों के संकट की एक विधि है जिसके माध्यम से साधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है।” नियोजन की इस विचारधारा में दो तत्व निहित हैं:

  • (अ) उद्देश्यों का क्रम जिनकी पूर्ति का प्रयास किया जाये।
  • (ब) वर्तमान साधनों का ज्ञान तथा उनका सर्वोत्तम आवंटन।

शैक्षिक नियोजन में उपलब्ध साधनों को विशेष महत्त्व दिया जाता है और उनके । क्रमबद्ध उपयोग की व्यवस्था की जाती है। शैक्षिक नियोजन का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसमें 3 शैक्षिक विकास व शिक्षा के संख्यात्मक और गुणात्मक विकास के लिए उपलब्ध साधनों और सामग्री का इस प्रकार अधिकतम उपयोग करने की योजना बनाई जाती है कि निर्धारित समय में शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। शैक्षिक नियोजन कई प्रकार के होते हैं।

भास्कर वर्मन के विषय में आप क्या जानते हैं?

शैक्षिक नियोजन के प्रकार-

शैक्षिक नियोजन के निम्नलिखित प्रकार हैं

  1. राष्ट्रीय नियोजन
  2. क्षेत्रीय नियोजन
  3. बहुस्तरीय नियोजन
  4. दीर्घकालीन नियोजन
  5. अल्पकालीन नियोजन
  6. गतिशील नियोजन
  7. स्थिर नियोजन
  8. संसाधनों पर आधारित नियोजन
  9. स्वतंत्र नियोजन
  10. आवश्यकताओं पर आधारित नियोजन
  11. उद्देश्य केन्द्रित नियोजन
  12. वित्तीय नियोजन
  13. प्रशासकीय नियोजन
  14. संख्यात्मक नियोजन
  15. गुणात्मक नियोजन ।

शैक्षिक नियोजन के सिद्धांत

इसके निम्नलिखित सिद्धांत हैं

  1. शैक्षिक नियोजन शैक्षिक उद्देश्यों पर आधारित
  2. आवश्यक सूचनाओं का संकलन
  3. प्राथमिक क्रम स्थापित करना
  4. योजना सम्बन्धी उपमुक्त विज्ञप्ति
  5. योजना का सामाजिक मूल्यांकन तथा लचीलापन
  6. विकल्पों का निर्धारण ।
  7. योजना निर्माण एवं कार्यान्विति में कार्यकर्त्ताओं का सहयोग
  8. राष्ट्रीय विकास और शैक्षिक नियोजन

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