मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।

मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त कार्ल मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का विवेचन अपनी पुस्तक Das Capital में किया है। मार्क्स ने पूँजीवाद का विशद अध्ययन किया था और पूँजीवाद के सम्बन्ध में उसका एक महत्त्वपूर्ण विचार अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त है।

मार्क्स के अनुसार प्रत्येक वस्तु के साथ दो प्रकार के मूल्य की बात जुड़ी हुई होती है। (i) उपयोग मूल्य व (ii) विनिमय मूल्य व्यक्ति के लिए वस्तु की उपयोगिता और आवश्यकता के आधार पर उसका उपयोग मूल्य निर्धारित होता है जैसे प्यासे के लिये पानी का निश्चित रूप से बहुत अधिक उपयोग मूल्य है। जबकि प्यास का अनुभव न कर रहे व्यक्ति के लिये पानी का कोई उपयोग मूल्य नहीं है। विनियम मूल्य का प्रश्न तब उपस्थिति होता है, जब किसी वस्तु को बाजार में बेचा जाता है। जिस मूल्य पर खरीददार विक्रेता से उस वस्तु को खरीदता है, उसे उसका विनिमय मूल्य कहते हैं। उदाहरण के लिये, यदि 1 टन गेहूं के बदले 2 थान कपड़ा या 1 हजार रुपये की धनराशि प्राप्त की जा सकती है, तो यह 1 टन गेहूं का विनिमय मूल्य है।

मार्क्स के अनुसार अर्थव्यवस्था की विवेचना दृष्टि से विनिमय मूल्य का ही महत्त्व है। सभी वस्तुएं बाजार में बेची और खरीदी जाती है। इससे यह स्पष्ट है कि कोई ऐसा सामान्य तत्त्व अवश्य है जो इन सभी वस्तुओं में विद्यमान रहता है। वह तत्त्व श्रम ही हो सकता है, जो इन सभी वस्तुओं में विद्यमान रहता है। अतः किसी वस्तु का विनिमय मूल्य मानव श्रम की उस मात्रा से निर्धारित होता है, जो किसी विशेष समाज में उसके निर्माण के लिये खर्च किया जाना आवश्यक है। यही मूल्य का श्रम सिद्धान्त है।

अपने मूल्य के श्रम सिद्धान्त के आधार पर मार्क्स ने महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। उसका विचार है कि प्रत्येक वस्तु का वास्तविक मूल्य उस पर खर्च किये गये श्रम के अनुसार होता है। किन्तु बाजार में वह वस्तु काफी ऊंचे मूल्य पर बेची जाती है और उसके बेचने से प्राप्त होने वाला अतिरिकत धन पूँजीपति के द्वारा अपने पास रख लिया जाता है। मार्क्स का कथन है कि, “पूँजीवाद द्वारा अपने पास रख लिया गया यहं धन ही अतिरिक्त मूल्य है।” स्वयं मार्क्स के शब्दों में, “यह उन दो मूल्यों का अन्तर है, जिसे मजदूर पैदा करता है, और जिसे वह वास्तव में पाता है।” दूसरे शब्दों में यह मूल्य वह है जिसको पूँजीपति मजदूर के श्रम से प्राप्त करता है, जिसके लिये उसने मजदूर को कोई मूल्य नहीं चुकाया है। मैक्सी के शब्दों में- “यह वह मूल्य है जिसे पूँजीपति श्रमिकों के खून-पसीने की कमाई पर पथ-कर के रूप में वसूल करता है।

कार्ल मार्क्स का मत था कि यह अतिरिक्त मूल्य वस्तुतः श्रमिकों के श्रम का ही परिणाम है। अतः न्याय की माँग है कि वह उसे ही मिलना चाहिये। चूँकि श्रमिक लोग उतपादन अवस्था में उत्पादन के साधनों के स्वामी नहीं होते अतः उन्हें यह अतिरिक्त मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता तथा वह पूँजीपतियों द्वारा हड़प लिया जाता है। मार्क्स के अनुसार यह एक बड़ा अन्याय है तथा इस व्यवस्था में श्रमिकों की स्थिति दासों से नाममात्र ही अच्छी है। दास प्रथा में व्यक्ति को दासता के कारण उसके उचित पारिश्रमिक से वंचित रखा जाता था और आधुनिक अर्थ व्यवस्था में श्रमिक अपनी असहाय दशा से बाध्य होकर पूँजीपति के साथ ऐसी शर्त पर नौकरी करने को राजी हो जाता है कि उसे अपने श्रम का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। चूँकि श्रमिकों के पास उत्पादन के साधन खरीदने की शक्ति नहीं होती। अतः वे अपना श्रम पूँजीपतियों को नाममात्र की कीमत पर बेच देते हैं तथा उनके श्रम से उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य पूँजीपतियों की जेबों में चला जाता है।

अतिरिक्त मूल्य-सिद्धान्त की आलोचना

(1) श्रम उत्पादन का एकमात्र साधन नहीं – मार्क्स ने आर्थिक व्यवस्था के सम्बन्ध में श्रम को ही वस्तु के मूल्य का एकमात्र व अन्तिम निर्धारक तत्त्व माना है। उसने यह प्रतिपादित किया है कि पूँजीपति जिसे लाभ कहते हैं, वह श्रम का अतिरिक्त मूल्य ही है। किन्तु यह विचार त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि श्रम के अतिरिक्त भूमि, पूँजी, प्रबन्ध व साहस के द्वारा भी उत्पादन के साधन के रूप में कार्य किया जाता है।

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अतः लाभ को केवल श्रम का अतिरिक्त मूल्य न कहकर इन सभी साधनों का परिणाम कहा जाये तो गलत नहीं होगा। इस प्रकार मार्क्स के सिद्धान्त का मूल विचार गलत है।

(2) पूँजीपति द्वारा किये जाने वाले अनेक व्ययों का उल्लेख नहींमार्क्स के द्वारा इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया है कि वस्तुओं के उत्पादन में पूँजीपति को श्रमिक के अतिरिक्त अन्य अनेक बातों पर धनराशि व्यय करनी होती है। मिल मालिक को कारखाने के सुधार, मशीनों की घिसावट, श्रमिकों को उत्तम जीवन, बेकारी के बीमे, बोनस आदि देने में धनराशि देनी होती है। यह समस्त व्यय मार्क्स द्वारा कथित अतिरिक्त मूल्य में से ही होता है।

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