प्रस्तावना- – मातृभूमि की रक्षा करना तथा इस प्रयास में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना भारतीयों की सदा से ही परम्परा रही है। हमारी भारतभूमि पर केवल वीर पुरुषों ने ही जन्म नहीं लिया है, अपितु युग की अमिट पहचान प्रस्तुत करने वाली वीरांगनाओं ने भी इस धरती को विभूषित किया है। भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने वाली भारतीय नारियों का गौरव गान पूरा संसार एक स्वर में करता है। ऐसी ही वीरांगनाओं में रानी लक्ष्मीबाई का नाम अग्रणीय है, जिन्होंने स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर हँसते-हँसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। भारत की स्वतन्त्रता के लिए सन् 1857 में लड़े गए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास उन्होंने अपने रक्त से लिखा था।
जन्म-परिचय
लक्ष्मीबाई का जन्म 13 नवम्बर, 1835 ई. को पुण्यसलिला भागीरथी के तट पर स्थित ‘वाराणसी’ में हुआ था। आपकी माता का नाम भागीरथी तथा पिता का नाम मोरोपन्त था। लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम ‘मनुबाई’ था। मनु बाल्यावस्था से ही एक अद्भुत बालिका के रूप में अत्यधिक चंचल, हठी, कुशाग्र बुद्धि, निडर तथा साहसी थी, इसीलिए सब उन्हें प्यार से ‘छवीली’ कहते थे। जब ‘मनुबाई’ केवल चार वर्ष की थी, तभी आपकी माता का देहान्त हो गया; तब इनके पिता मोरोपन्त इन्हें लेकर बनारस से विठूर (कानपुर के निकट) वापस आ गए। अपनी पुत्री मनुवाई के लालन-पालन का उत्तरदायित्व अब इन्हीं के कन्धों पर था। तत्पश्चात् आपका पालन-पोषण वाजीराव पेशवा के संरक्षण में हुआ। वाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नानाजी के साथ आप राजकुमारी जैसे वस्त्र पहनकर व्यूह रचना, तीर चलाना, घुड़सवारी करना तथा युद्ध करना आदि खेल खेला करती थी।
विवाह एवं वैधव्य
मनु जब कुछ बड़ी हो गई, तब 1842 ई. में मनुवाई का पाणिग्रहण संस्कार झाँसी के अन्तिम पेशवा राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। विवाह के पश्चात् ‘मनुबाई’ झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई कहलाने लगी। राजमहलों में आनन्द उत्सव मनाए गए, तथा घर-घर में खुशी के दीप जलाए गए। विवाह के कुछ समय बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया परन्तु दुर्भाग्यवश तीन महीने बाद ही उनके उस पुत्र की मृत्यु हो गई। पुत्र-वियोग में गंगाधर राव ने भी बिस्तर पकड़ लिया। अनेक उपचारों के बाद भी वे स्वस्थ नहीं हुए तो उन्होंने दामोदर राव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया। किन्तु रानी लक्ष्मीबाई के दुखों का शायद यही अन्त नहीं था तभी तो 28 नवम्बर, 1853 को राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गए। रानी लक्ष्मीबाई तो एकदम अकेली हो गई थी। मात्र अठारह वर्ष की छोटी सी आयु में ही वे विधवा हो गई। पूरा राज्य दुखों के अथाह सागर में डूब गया।
गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात् झाँसी की रानी को असहाय एवं अनाथ मानकर अंग्रेजों की स्वार्थलिप्सा जाग्रत हो उठी। वे तो अपना साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने उनके दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया तथा झाँसी को ब्रिटिश राज्य में मिलाने की आज्ञा दे दी, किन्तु लक्ष्मीबाई शेरनी की भाँति दहाड़ते हुए बोली, “झाँसी मेरी है, मैं अपने प्राण रहते इसे कभी भी नहीं छोडूंगी।” तभी से उनके हृदय में अंग्रेजों के प्रति घृणा तथा विद्रोह की ज्वाला सुलगने लगी। तभी से रानी ने महान कूटनीतिज्ञ की भाँति अपनी शक्ति संचय करना प्रारम्भ कर दिया।
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प्रथम स्वतन्त्रता
संग्राम में योगदान-सन् 1857 में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम हुआ। यह चिंगारी श्री मंगल पांडे द्वारा मेरठ में स्फुटित हुई थी। धीरे-धीरे इस युद्ध की लपटे दिल्ली, लखनऊ, बनारस आदि में भी फैलने लगी। उसी समय अंग्रेजों ने झाँसी पर भी धावा बोल दिया, शायद वे रानी की हिम्मत का अन्दाजा नहीं लगा पाए थे। वे नहीं जानते थे कि रानी कोई साधारण स्त्री नहीं थी, वरन् वह तो साक्षात् चण्डी बन चुकी थी, तभी तो उन्होंने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए। अंग्रेजों द्वारा गोले बरसाए गए जिसका रानी ने मुँह तोड़ जवाब दिया। परन्तु अधिक सेना न होने तथा कुछ विश्वासघाती देशद्रोहियों के कारण विजयश्री अंग्रेजों के ही हाथ आई। रानी ने एक बार अपने गढ़ के कोठे पर से अपनी प्यारी झाँसी को देखा तथा अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को लेकर झाँसी के किले से बाहर निकल आई। अंग्रेजों ने रानी को पकड़ने की पूरी कोशिश की लेकिन वे अंग्रेजों के हाथ न आई तथा ‘कालपी’ जा पहुँची। कालपी के राजा ने लगभग 250 सैनिक युद्ध करने के लिए दे दिए। इन सैनिकों की सहायता से रानी भूखी शेरनी की भाँति अंग्रेजों पर टूट पड़ी, किन्तु विजयी नहीं हो पायी तथा ‘कालपी’ पर भी अंग्रेजों का ही अधिकार हो गया।
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इसके पश्चात् रानी लक्ष्मीबाई तथा दामोदर राव ग्वालियर पहुँच गए। वहाँ भी रानी ने डटकर अंग्रेजों का सामना किया। अकेली रानी ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। चारों ओर खून की नदियाँ बहने लगी। जब रानी अपने घोड़े पर बैठी हुई एक नाला पार कर रही थी तब एक अंग्रेज ने पीछे से उन पर वार कर दिया तथा वहीं पर लक्ष्मीबाई की जीवन लीला समाप्त हो गई किन्तु मरते मरते उन्होंने अपने मारने वाले अंग्रेज का जीवन भी समाप्त कर डाला। मृत्यु का आलिंगन कर रानी भगवान की प्यारी हो गई ।
उपसंहार
रानी लक्ष्मीबाई का जीवन चित्रण प्रत्येक महिला के लिए आदर्श है जो बताता है कि नारी अबला नहीं, वरन् सबला है। लक्ष्मीबाई तो ममता दृढ़ता, वीरता, त्याग की साक्षात् प्रतिमा थी। जिस स्वतन्त्रता संग्राम का बीज रानी ने बोया था, उसका फल हम भारतीयों को 15 अगस्त, 1947 को प्राप्त हुआ। आज भी उनके जीवन की प्रत्येक घटना भारतीयों में नव-स्फूर्ति तथा नव चेतना का संचार कर रही है। उनका नाम सुनते ही आज भी भारतीय नारी का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है कि एक नारी ने पुरुष समाज में इतना कुछ कर दिखाया। हम भारतीय सदा उनके ऋणी रहेंगे।