मिहिरभोज प्रतिहार वंश का महानतम् शासक था।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

मिहिरभोज (भोजराज प्रथम सन् 836 ई. में अपने पिता रामभद्र के पश्चात् मिहिरभोज प्रतिहार वंश का शासक बना। उसकी माता का नाम अप्पादेवी था। मिहिरभोज के शासनकाल की जानकारी के पर्याप्त श्रोत उपलब्ध है, जिनमें अभिलेख, मुस्लिम लेखकों के वर्णन, साहित्यक ग्रन्थ और मुद्राएं आदि है। मिहिरभोज प्रतिहार वंश का महान शासक था। उसका शासनकाल प्रतिहारों के उत्कर्ष का काल था। उसने अपने शासनकाल में अपने वंश की प्रतिष्ठा में न केवल वृद्धि की बल्कि अपने साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार भी किया।

मिहिरभोज की उपलब्धियाँ और साम्राज्य विस्तार

मिहिरभोज प्रतिहार वंश का एक महान शासक था। उसके शासनकाल में प्रतिहार वंश की सीमाओं में अपार वृद्धि हुई मिहिरभोज की उपलब्धियों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

कालिंजर पर अधिकार

जिस समय मिहिरभोज कन्नौज के राज सिंहासन पर बैठा उस समय प्रतिहार वंश की प्रतिष्ठा बहुत गिर चुकी थी। रामभद्र के शासनकाल में कालिंजर मण्डल (बुन्देलखण्ड) स्वतन्त्र हो गया था। कालिंजर मण्डल में नागभट्ट द्वितीय द्वारा जो जागीरें दान के रूप में दी गयी थीं, उन जागीरों का उपभोग रामभद्र के शासन में लोग नहीं कर पा रहे थे परन्तु मिहिरभोज प्रथम ने अपने बाहुबल से पितामह द्वारा दान में दी गयी जागीरों पर लोगों को पुनः अधिकार दिलाया। इससे स्पष्ट है कि (से रामभद्र के शासन काल में जो कालिंजर मण्डल स्वतन्त्र हो गया था उस पर मिहिरभोज ने प्राप्त कर लिया। पुनः अधिकार

पूर्वी राजपूताना पर अधिकार

देलतपुर अभिलेख से विदित होता है कि पूर्वी राजपूताना में दान की प्रक्रिया जो वत्सराज नागभट्ट द्वितीय के शासन में बनी रही, वह रामभद्र के शासन काल में न थी। । परन्तु बाठक के जोधपुर उत्कीर्ण लेख से विदित होता है कि बाउक ने नन्द बल्लभ एवं मयूर को मार डाला तथा नौ मण्डलों के संघ का दमन किया। उसने यह कार्य माण्डलिक रूप में भोज के अधीन रहकर ही किया होगा।

कलचुरि एवं गुहिलवंश की अधीनता कहला अभिलेख के अनुसार कलचुरि वंश के शंकरगढ़ के पुत्र गुणासागर प्रथम (गुणम्बोधि देव) ने भोज के उत्तरी पूर्वी अभियानों में उसे सहायता थी। इस आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कचतुरि वंश मिहिरभोज की अधीनता स्वीकार करता था।

बालादित्य के वात्सू उत्कीर्ण लेख से हर्षराज गुहिल का उल्लेख मिलता है। हर्षराज गुहिल ने उत्तर के समस्त राज्यों को जीतकर भोज को भक्तिपूर्वक उपहार में अश्व प्रदान किये थे। इस आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि हर्षराज गुहिल प्रतिहार नरेश मिहिरभोज का सामन्त था। अतः गुहिल वंश भी मिहिरभोज की अधीनता स्वीकार करता था।

पंजाब पर अधिकार

पिले लेख से विदित होता है कि मिहिरभोज के साम्राज्य में र नदी के पूर्वी भाग (प्राचीन पृयूदक एवं कर्नात प्रान्त) भी सम्मिलित थे। मिहिरभोज के साम्राज्य भूमि भी थी, जिस पर अलखन सामन्त के रूप में कार्य कर रहा था। परन्तु कल्हण की राजतरंगिणी से विदित होता है कि कश्मीर के शासक शंकरवर्मन ने अलखन से टक भूमि जीतकर उस भूमि से, मिहिरभोज का अधिकार समाप्त कर दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह घटना मिहिरभोज की वृद्धावस्था की है। परन्तु मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्र पाल ने इस भूमि पर पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया।

पश्चिमी भारत पर अधिकर-

ऊना (जूनागढ़ राज्य) ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि गुर्जर प्रतिहार राज्य में कच्छ व काठियावाड़ प्रदेश भी सम्मिलित थे। इस लेख से भी यह ज्ञात होता है कि बलवर्मन ने उज्जैन एवं अन्य राजाओं को मारकर पृथ्वी की हूणों से रक्षा की। डॉ. बी. एन. पुरी का कथन है कि मिहिरभोज का सामन्त बलवर्मन था महेन्द्रपाल द्वितीय के प्रतापगढ़ उत्कीर्ण लेख से विदित होता है कि ‘एक चाहमान नृपवंश जिसकी उत्पत्ति पृथ्वी की रक्षा के हेतु हुई थी, श्री भोज देव के लिए उच्च सुख का कारण था। कुछ इतिहासकारों ने स्कन्दपुराण के आधार पर सौराष्ट्र भी मिहिरभोज के अधीन माना है परन्तु इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।

मध्य भारत पर अधिकार

मध्य भारत से तीन लेख मिले हैं। इस आधार पर डॉ. पाण्डेय का कथन है कि मिहिरभोज के साम्राज्य में मध्य भारत का भी भाग था। प्रथम देवगढ़ जैन स्तम्भ लेख है जो झांसी प्रान्त से प्राप्त हुआ है। यह लेख विक्रम संवत् 919 (832 ई.) का है। यहाँ पर विष्णुराम का एक सामन्त मिहिरभोज की अधीनता में कार्य कर रहा था। ग्वालियर से दो लेख प्राप्त हुए है जिसमें एक 932 विक्रम संवत् तथा दूसरा 933 विक्रम संवत् का है। यहाँ पर अन्त नाम का एक सामन्त कार्य कर रहा था। इस लेख से यह भी विदित होता है कि ग्वालियर पर रामभद्र का अधिकार था।

अरबों से युद्ध

जिस समय मिहिरभोज सिंहासन पर बैठा, उसी समय सिन्ध का गवर्नर इब्न मूसा भी अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था। परन्तु मिहिरभोज ने अरबों को कच्छ से बाहर खदेड़ दिया। अरब यात्री सुलेमान जुय (गुर्जर) नरेश का वर्णन करता है। उसके अनुसार जुन के पास विशाल सेना है। किसी भी भारतीय नरेश के पास मिहिरभोज से अच्छी घुड़सवार सेना नहीं है। उसकी विशाल सेना में ऊंट और घोड़ों की संख्या अधिक है। वह अरबों का शत्रु है भोज की ग्वालियर प्रशस्ति से भी विदित होता है कि उसने कार्तिकय की भाँति उम्र असुरों (अरबों का दमन किया था।

राष्ट्रकूटों से युद्ध

कूट वंश के दो शासक (अमोघवर्ष प्रथम एवं कृष्ण द्वितीय) मिहिरभोज के समकालीन थे। अमोघवर्ष प्रथम एक निर्बल शासक था। निर्बल शासन का लाभ उठाकर मिहिरभोज ने उज्जैन तक अपना अधिकार स्थापित कर लिया और नर्मदा नदी तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। परन्तु बगुमश लेख से विदित होता है कि राष्ट्रकूटों के गुजरात के सामन्त ध्रुव द्वितीय द्वारा मिहिरभोज पराजित हुआ, जिसे सम्पूर्ण पृथ्वी का विजेता कहा जाता था।

878 ई. में अमोघवर्ष प्रथम की मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय उत्तराधिकारी बना। मिहिरभोज एवं कृष्ण द्वितीय में भी संघर्ष चलता रहा। वर्तन संग्रहालय के लेख से विदित होता है कि प्रतिहार नरेश मिहिरभोज ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय के सामन्त कृष्ण राज को पराजित किया था। परन्तु राष्ट्रकूट सामन्त कृष्णराज के बघुमा लेख से विदित होता है कि उसने उज्जैन पर प्रतिहार नरेश मिहिरभोज को परास्त कर अधिकार प्राप्त कर लिया था।

इस प्रकार मिहिरभोज एवं राष्ट्रकूट वंश के संघर्ष में कभी मिहिरभोज को सफलता मिलती तो कभी राष्ट्रकूट वंश को डॉ. अल्लेकर का कथन है कि इन युद्धों में किसी भी दल को कोई लाभ न मिला। परन्तु इतना निश्चित है कि मिहिरभोज ने उत्तरी भारत में अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया था। इस स्थिति में राष्ट्रकूट शासक कहीं भी शिथिलता उत्पन्न न कर सके। दूसरी ओर यह भी मानना पड़ेगा कि दक्षिण भारत में मिहिरभोज अपनी शक्ति को नहीं बढ़ा सका था।

पाल वंश से युद्ध

पाल वंश के तीन शासक (देवपाल, विग्रहपाल एवं नारायणपाल) प्रतिहार नरेस मिहिरभोज के समकालीन थे। प्रतिहार नरेश मिहिरभोज एवं पाल नरेश देवपाल के मध्य भी युद्ध हुआ था। बादल स्तम्भ लेख से विदित होता है कि पाल नरेश देवपाल ने गुर्जरों के स्वामी का दुर्प चूर चूर कर नष्ट कर दिया था। परन्तु बाद में मिहिरभोज ने कलचुरि वंश की सहायता से अपनी स्थिति को पुनः मजबूत बनाया। सोढ़देव के कहला ताम्रपत्र लेख से भी विदित होता है कि कलचुरि सामन्त शंकरगुण प्रथम के पुत्र गुणसागर प्रथम (गुणाम्भोधिदेव) ने गौड़ लक्ष्मी का अपहरण किया था। इससे भी विदित होता है कि मिहिरभोज द्वारा गौड़ नरेश को पराजित करने में गुणसागर प्रथम ने सहायता पहुँचायी थी। जयपुर प्रान्त से प्राप्त चाटू अभिलेख से भी यही सिद्ध होता है कि पाल नरेश की पराजय में हर्षराज गुहिल सामन्त ने भी साथ दिया था। डॉ. मजूमदार एवं डॉ. त्रिपाठी का मत है कि भोज एवं पाल नरेश देवपाल के मध्य संघर्ष में देवपाल को ही सफलता मिली।

पाल नरेश देवपाल की मृत्यु के बाद नारायणपाल आदि शासक हुए। ये शान्त प्रकृति के शासक थे। इसका पूरा लाभ प्रतिहार नरेश मिहिरभोज ने उठाया। मिहिरभोज ने अपने सामन्तों की सहायता से पात नरेशों को क्रमशः पराजित किया। ग्वालियर प्रशस्ति से भी विदित होता है कि जो कीर्ति देवपाल ने अर्जित की थी, मिहिरभोज ने शत्रु सेना रूपी समुद्र का मन्थन कर उस यश रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया।

मिहिरभोज का साम्राज्य

मिहिरभोज ने कन्नौज में अपनी राजधानी बनायी। हर्षवर्धन के समय में जिस प्रकार कन्नौज राजशक्ति का केन्द्र था, उसी प्रकार मिहिरभोज के शासन काल में भी कन्नौज राजशक्ति का प्रधान केन्द्र बन गया था। कन्नौज विशाल साम्राज्य बन गया था, जिसमें 26 लाख गाँव थे। मिहिरभोज का विशाल साम्राज्य उत्तर में हिमालय से, दक्षिण में विन्ध्याचल एवं नर्मदा नदी तथा पूर्व में उतरी बंगाल से लेकर पश्चिम में मुलतान एवं काठियावाड़ तक विस्तृत था

मिहिरभोज एवं राज त्याग

डॉ. राय चौधरी का मत है कि स्कन्दपुराण में स्वस्थ माहात्म्य से विदित होता है कि भोज ने अपने शासन के समय के पश्चात् राज त्याग करने की इच्छा प्रकट की और पुत्र के हाथ में राजपाट छोड़कर तीर्थयात्राओं को चला गया था।

परन्तु कुछ इतिहासकार राय चौधरी के इस मत से सहमत नहीं है कि मिहिरभोज ने राज्य का त्याग किया था। गुरु के कहने पर भोज ने राज त्याग की इच्छा को त्याग दिया और राजधर्म का पालन करते हुए उसने परम सुख की प्राप्ति की।

मिहिरभोज का मूल्यांकन

गुर्जर प्रतिहार वंश का सबसे प्रतापी एवं योग्य शासक मिहिरभोज ही था। इसके काल में प्रतिहार वंश अपनी उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर था। स्कन्दपुराण से विदित होता है कि मिहिरभोज का चुम्बकीय व्यक्तित्व था। उसकी बड़ी-बड़ी भुजाएँ एवं विशाल नेत्र लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे। ग्वालियर प्रशस्ति से विदित होता है कि वह यशस्वी एवं शतात्मा था अहंकार रूपी दोष ने उसे स्पर्श तक नहीं किया था तथा वह गुणी लोगों के प्रति प्रेमभाव प्रदर्शित करता था।

मिहिरभोज ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। उसका विशाल साम्राज्य उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विन्ध्याचल एवं नर्मदा नदी तक एवं पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में काठियावाड़ तक विस्तृत था। डॉ. अवस्थी का कथन है कि ‘संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि पूर्व मध्यकालीन युग के उस आपत्ति काल में भोज ही एक ऐसा महान् सम्राट था जिसने उत्तरी भारत में सौराष्ट्र से लेकर बिहार तक शान्ति और व्यवस्था स्थापित की थी।’

प्रसिद्ध राजपूत वंश कौन से थे?

अरब यात्री सुलेमान ने भी प्रतिहार नरेश मिहिरभोज की प्रशंसा की है, ‘इसके राज्य में एक विशाल सेना थी। राजा अपने विपुल धन, बहुसंख्यक अश्वों एवं ऊँटों के लिए विख्यात था।’ मिहिरभोज ने न केवल वाह्य आक्रमण से ही देश की रक्षा की बल्कि उत्तराधिकार में मिले छोटे से साम्राज्य को एक विशाल साम्राज्य में भी परिवर्तित कर दिया। इसी कारण उसकी गणना भारत के महान शासकों में की जाती है।

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