प्रदत्त व्यवस्थापन (प्रयोजित विधायन) क्या है? इसके क्या गुण-दोषों का वर्णन कीजिये।

प्रदत्त व्यवस्थापन- संसद पर काम का भार इतना अधिक रहता है कि उसे कुछ विषय बिना किये ही छोड़ने पड़ते हैं। कोई महत्वपूर्ण विषय न छूट जाये इसलिये अच्छा यही है। कि कम महत्वपूर्ण विषयों को वह स्वयं छोड़ दे। इसलिये संसद ने स्वयं ही ‘कानून के विस्तार’ को अपने हाथों से प्रशासनिक अधिकारियों को सौंप दिया है। संसद अब केवल कानून की रूपरेखा पारित करती है। उसमें विस्तार से नियम उपनियम बनाने का कार्य सम्बन्धित मन्त्रालय पर छोड़ देती है। इस तरह संसद द्वारा विधि-निर्माण के लिये विभागों को सौंपी गई प्रदत्त शक्ति को ‘प्रद व्यवस्थापन’ कहते हैं।

प्रदत्त व्यवस्थापन के पक्ष में तर्क

प्रदत्त व्यवस्थापन के विकास और वृद्धि का कारण यह रहा कि संसद ने इसके द्वारा अपने कार्यभार को हल्का किया। इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी था कि संसद के सदस्य कितने ही योग्य क्यों न हों, व्यवस्थापन की बारीकियों के विषय में इतने कुशल नहीं हो सकते थे, जितने कि विभागीय अधिकारी। इस व्यवस्था के अग्र लाभ हुए

  1. संसद के समय में बचत होने लगी, जिसका वह अन्य महत्वपूर्ण कार्य में उपयोग कर सकती है।
  2. कानून की बारीकियों और विस्तार का निर्णय विशेषज्ञों द्वारा होने लगा।
  3. प्रशासन में कुछ लचीलापन आ सकता है क्योंकि नियम-उपनियम आवश्यकता और परिस्थितियों के अनुरूप बनाये जा सकते हैं।
  4. कभी-कभी तत्काल किसी आदेश को देने की आवश्यकता पड़ जाती है। कार्यपालिका विभाग आवश्यक नियम-विनिमय जारी करके इस आवश्यकता को तुरन्त पूरा कर सकता है। ऐसा विधेयक अधिक व्यावहारिक तथा यथार्थ होगा।

इन्हीं तथ्यों के आधार पर जैनिंग्स ने कहा था- “वास्तविक परिस्थितियों में प्रदत्त व्यवस्थापन आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य भी हो गया है।”

प्रदत्त व्यवस्थापन के दोष

कुछ विद्वान इस व्यवस्था के विरोधी हैं। ब्रिटेन के मुख्य न्यायाधीश लार्ड हीवर्ट ने अपनी पुस्तक- “The New Despotism” प्रदत्त व्यवस्थापन के विरुद्ध आपत्तियाँ उठाई हैं और इसे ‘नव अधिनायकवाद’ या ‘नौकरशाही की विजय कहा है। इनका आरोप है

(1) प्रदत्त व्यवस्थापन पर संसद का नियन्त्रण नहीं है, अतः यह संसद की सम्पूर्ण प्रभुत्ता के लिये चुनौती है।

(2) प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के कारण न्यायालयों के अधिकारों का परिसीमन होता है। फलस्वरूप प्रयोजित विधायन विधि के शासन के लिये भी गम्भीर चुनौती है।

(3) प्रदत्त व्यवस्थापन प्रजातन्त्र की आत्मा के विपरीत है, क्योंकि कानून बनाना जनता के प्रतिनिधियों का काम है, सरकारी कर्मचारियों का नहीं। इससे सरकारी कर्मचारियों की शक्तियाँ भी बहुत बढ़ जाती है और उनमें निरंकुशता पनपने लगता है।

(4) प्रदत्त विधायन में वास्तविक कानून को तोड़-मरोड़कर किसी दूसरे ही रूप में सात किया जा सकता है। साथ ही इससे विधि निर्माण के क्षेत्र में विभ्रम बढ़ता है। यह समझ पाना कठिन होता है, कौन सी शक्तियाँ संसद की है और कौन सा विभागीय अधिकारियों की।

निर्देशन एवं परामर्श केन्द्रों के कार्यों का वर्णन कीजिए।

इस प्रकार प्रदत्त व्यवस्थापन में गुण और दोष दोनों निहित है। परन्तु सत्य यह है कि प्रदत्त व्यवस्थापन के अतिरिक्त और कोई व्यावहारिक उपाय भी नहीं है। विलफ्रेड हैरिसन ने बहुत सुन्दर विचार व्यक्त किये हैं- “प्रश्न यह नहीं है कि इसके बिना कैसे काम चलाया जाये या इसे कैसे कम किया जाये, बल्कि प्रश्न यह है कि इसका सर्वाधिक लाभ कैसे उठाया जाय।”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top