संयुक्त परिवार का अर्थ एवं परिभाषा दीजिए तथा इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।

संयुक्त परिवार का अर्थ – संयुक्त परिवार हिन्दू सामाजिक जीवन की एक मुख्य विशेषता है। इसका प्रचलन केवल हिन्दुओं में हो दिखाई पड़ता है। संयुक्त परिवार प्रणाली जाति प्रथा की ही भाँति हिन्दू समाज का एक आधारभूत संगठन है। इसी संगठन के कारण ही यहाँ के लोगों का जीवन प्रभावित हुआ है। संयुक्त परिवार की परिभाषा के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों ने अपने मत प्रकट किए हैं

श्रीमती इरावती कार्वे के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का एक समूह है जो साधारणतया एक मकान में रहते हैं जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के स्वामी होते हैं, और जो उपासना में भाग लेते हैं, तथा जो किसी न किसी प्रकार एक-दूसरे के रक्त सम्बन्धी हैं।”

इसके विपरीत डॉ० आई० पी० देसाई का मत यह है कि “विभिन्न प्रकार के परिवारों का आधार सामान्य निवास, सामान्य पाठशाला या समूह के सदस्यों की संख्या नहीं है।”

डॉक्टर शर्मा के अनुसार डॉक्टर देसाई की उपरोक्त परिभाषा का प्रमुख दोष यह है कि इसमें देसाई ने पीढ़ी की गहराई पर ही अत्यधिक बल दिया है। उनके अनुसार ऐसा परिवार संयुक्त परिवार नहीं माना जाएगा, जिसमें दो भाई एक साथ रहते हैं, साथ ही खाते हैं, और आय तथा सम्पत्ति के दृष्टिकोण से भी संयुक्त है।

डॉ० श्यामाचरण दुबे के अनुसार, “यदि कई मूलपरिवार एक साथ रहते है, और इनमें निकट

संयुक्त परिवार की प्रमुख विशेषताएँ

संयुक्त परिवार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) सहयोगी व्यवस्था

संयुक्त परिवार का आधार सहयोग है क्योंकि इसमें एकाधिक सदस्य होते हैं और यदि वे आपस में सहयोग न करें तो परिवार का संगठन व व्यवस्था कायम न रह सके। इसी सहयोग का परिणाम यह होता है कि दूसरे प्रकार के परिवार जिन आर्थिक-सामाजिक कार्यों को नहीं कर सकते, संयुक्त परिवार के लिए वे ही कार्य करना सरल हो जाता है।

(2) सामान्य सामाजिक तथा धार्मिक कर्तव्य सामान्यतः

संयुक्त परिवार के सब सद्स्य एक धर्म को मानते हैं उसी धर्म के सम्बन्धित कर्तव्यों को सम्मिलित रूप से निभाते हैं। साथ ही प्रत्येक सामाजिक कर्तव्य के विषय में भी उनका एक सम्मिलित सहयोग या योगदान रहता है, उदाहरणार्थ, सामाजिक उत्सवों तथा त्योहारों को वे एक साथ मनाते हैं, विवाह आदि पारिवारिक संस्कारों के विषय में भी अपने को सम्मिलित रूप से उत्तरदायी समझते है. भारत के ग्रामीण समुदायों में पाए जाने वाले संयुक्त परिवारों में यह विशेषता विशेष रूप से देखने को मिलती है। सम्बन्धित अनुसंधानों से पता चलता है कि भारतीय श्रमिकों की प्रवासी प्रवृत्ति (Migratory character) का एक प्रमुख कारण, संयुक्त परिवार की उक्त विशेषता है। चूँकि उत्सवों त्योहारों तथा विवाह आदि पारिवारिक संस्कारों के अवसरों पर परिवार के अन्य सदस्यों के साथ सम्मिलित होना और आवश्यक कार्यों में हाथ बँटाना श्रमिक अपना कर्तव्य समझता है, इसलिए उसे समय-समय पर शहर छोड़कर अपने गाँव जाना ही पड़ता है।

(3) बड़ा आकार

यद्यपि श्री देसाई ने बड़े आकार को संयुक्त परिवार का आधार नहीं माना है फिर भी अगर हम हिन्दू परिवार के संयुक्त परम्परात्मक स्वरूप को देखें तो स्पष्ट होगा कि एक संयुक्त परिवार में पिता, पुत्र उसके पुत्र और इनसे सम्बन्धित स्त्रियों और अन्य नाते-रिश्तेदारों का समावेश है। इस प्रकार संयुक्त परिवार का आकार साधारणतया बड़ा ही होता है। इसलिए डॉ० दुबे ने अपनी परिभाषा मैं यह स्पष्टत: उल्लेख किया है कि उस परिवार को संयुक्त परिवार कहा जा सकता है जिसमें कई मूल परिवार एक साथ रहते हो।

(4) एक उत्पादक इकाई

परम्परात्मक आधार पर संयुक्त परिवार की एक विशेषता यह है, कि यह एक उत्पादक इकाई भी होता है। यह बात विशेषकर कृषि समाज के सम्बन्ध में बहुत ही सच है। वहाँ एक संयुक्त परिवार के सभी सदस्य एक या एकाधिक सामान्य (Common) खेत को जोतते और बोते हैं और एक साथ मिलकर ही फसल काटते है। कारीगर वर्गों जैसे जुलाहों, बढ़ाइयों, लोहारों आदि में भी सम्पूर्ण परिवार एक उत्पादक इकाई होता है, उत्पादन का कार्य पारिवारिक आधार पर होता है और इस कार्य को परिवार के सभी लोग पुरूष, स्त्रियाँ तथा बच्चे-एक साथ मिलकर करते हैं। श्रम का जो भी प्रतिफल मिलता है उसे भी सब साथ मिलकर उपभोग करते हैं, इस प्रतिफल में कोई अलग-अलग हिस्सा नहीं लगता है और न ही कोई सदस्य इस प्रकार की कोई माँग करता है।

(5) सम्मिलित सम्पत्ति

संयुक्त परिवार में सम्पत्ति सम्मिलित रूप में होती है, जब तक कि कोई सदस्य अपना अनुबन्ध संयुक्त परिवार से न तोड़ ले और सम्पत्ति के बंटवारे की माँग करे। इस विशेषता के विकसित और सुदृढ़ होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि यह आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी थी। संयुक्त परिवार में रहने वाले सभी व्यक्ति सम्मिलित सम्पत्ति से लाभ उठाते हैं तथा उनका पालन-पोषण व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है।

(6) सामान्य वास-

कानूनी दृष्टिकोण से संयुक्त परिवार का एक सामान्य वास भी होना चाहिए, अर्थात् परिवार के सब सदस्य एक हो घर में रहते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि यदि कुछ भाइयों का अविभाजित पैतृक गृह या निवास है और उनकी एक संयुक्त सम्पत्ति भी है चाहे वे भाई अलग-अलग शहरों में नौकरी करने के लिए वहाँ रहते ही क्यों न हों, फिर भी वे संयुक्त परिवार का निर्माण करेंगे। डॉ० देसाई ने भी लिखा है कि संयुक्त परिवार का यह कोई आवश्यक लक्षण नहीं है कि परिवार के सभी सदस्य एक घर में रहते हों।

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(7) पारस्परिक अधिकार और कर्तव्य बोध-

संयुक्त परिवार में कर्त्ता को छोड़कर किसी का भी विशेष अधिकार नहीं होता। प्रत्येक सदस्य का एक पारस्परिक अधिकार संयुक्त परिवार की एक विशेषता है। प्रत्येक को उसकी क्षमता के अनुसार और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार, इसी सिद्धान्त पर संयुक्त परिवार आधारित होता है। इतना ही नहीं, संयुक्त परिवार के समस्त सदस्य एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में सचेत रहते हैं। इसके अन्तर्गत प्रत्येक सदस्य की एक निश्चित स्थिति और उत्तरदायित्व होता है तथा इसके अनुसार ही प्रत्येक सदस्य अपने को एक-दूसरे से सम्बन्धित समझता है। प्रत्येक के लिए सब और सबके लिए प्रत्येक यही संयुक्त परिवार का आदर्श तत्व है।

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