स्पेन्सर का विकास सम्बन्धी सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।

स्पेन्सर का विकास सिद्धान्त- स्पेन्सर ने अपने विकासवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन अपनी पुस्तक ‘सामाजिक स्थिति विज्ञान’ में किया है। विकासवाद स्पेन्सर के समस्त राजनीतिक दर्शन की आधारशिला है। ऐसा कहा जाता है कि विकासवाद के सिद्धान्त का प्रवर्तक डार्विन है, किन्तु यह विचार पूर्णतः सत्य नहीं है क्योंकि डार्विन के ‘ओरिजन ऑफ स्पेसीज’ ग्रन्थ के प्रकाशित होने से 6 वर्ष पूर्व ही स्पेन्सर अपना विकासवादी सिद्धान्त प्रकाशित कर चुका था, जिसमें उसने ‘विकास को प्रकृति का आधारभूत नियम’ घोषित किया था डार्विन, वैलास, हक्सले, लेविस आदि जीवनशास्त्रियों के निष्कर्षो ने स्पेन्सर के परिणामों की सत्यता को स्वीकार किया।

19वीं शताब्दी के अनेक वैज्ञानिकों ने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करके ‘जीवनशक्ति (Life Force) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनका कहना था कि यह शक्ति सदैव प्रगतिशील रहती है और इसी के कारण मानव समाज का निरन्तर विकास होता रहता है। स्पेन्सर ने इस धारणा को मान्यता प्रदान करके अपने विकासवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । स्पेन्सर का कहना है कि विश्व में एक नियमित एवं निश्चित विकासवादी सिद्धान्त कार्य करता है तथा परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया संसार की प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करती है चाहे वह चेतन हो या अचेतन प्रत्येक पदार्थ में जो परिवर्तन होता है वह विकास के परिणामस्वरूप होता है। परिवर्तन एक प्राकृतिक नियम है जो प्रत्येक वस्तु के लिए अनिवार्य है। विकास सिद्धान्त एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। स्पेन्सर के अनुसार विकासवाद यह सिद्धान्त है जो अनिश्चितता से निश्चितता की ओर, सरलता से जटिलता की ओर तथा जातीयता से विकास विजातीयता की ओर अग्रसर होता है। विकासवाद की प्रक्रिया जैविक अजैविक (चेतन एवं अचेतन) तथा अतिजैविक (समाज एवं व्यक्ति) तीनों ही क्षेत्रों में होती है।

विकास की प्रक्रिया

स्पेन्सर की धारणा थी कि भौतिक तत्त्व अविनश्वर है और – जीवन-शक्ति सदैव गतिशील रहती है। अतः विकास की प्रक्रिया में भौतिक तत्त्वं अनिश्चित एवं असमन्वित एकरूपता से निश्चित एवं समन्धित विभिन्नता में सर्वदा परिवर्तित होता रहता है। उसकी धारणा थी कि सम्पूर्ण विश्व और प्राणी जगत एवं निर्जीव जगत में विकास की प्रक्रिया जारी है और यह अभियान सरलता से जटिलता की ओर निरन्तर चल रहा है। उसका कहना है कि भौतिक जगत से ही चेतन जगत का उदय और विकास हुआ है। स्पेन्सर के अनुसार विकासवाद की प्रक्रिया जैविक, अजैविक और अतिजैविक तीनों ही क्षेत्रों में होती है।

विकास की अवस्थाएँ

स्पेन्सर के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु चाहे जड़ हो या चेतन पूर्णता प्राप्त करना चाहती है। अतः प्रत्येक वस्तु में उस समय तक परिवर्तन होता रहता है जब तक वह पूर्णता को प्राप्त नहीं कर लेती। स्पेन्सर ने विकास क्रम को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “विकास गति निरन्तर विघटन एवं द्रव्य के संगठन का एक स्पष्ट रूप है। इस क्रिया में द्रव्य एक अनिश्चित, अव्यवस्थित एवं पृथक् स्थिति से एक निश्चित एवं सुव्यवस्थित एवं संयोजित अवस्था में बदलता है। इसके साथ ही उस द्रव्य की अवरुद्ध गति भी समानान्तर रूप से परिवर्तित होती रहती है।” स्पेन्सर के अनुसार विकास प्रक्रिया में परिवर्तन की निम्नलिखित 5 अवस्थाएँ हैं जिनमें से होकर प्रत्येक जड़ और चेतन वस्तु गुजरती है-

  1. सरलता से जटिलता की ओर,
  2. अनिश्चित से निश्चित की ओर,
  3. एकीकरण से अनेकीकरण की ओर,
  4. समाजीयता से विजातीयता की ओर,
  5. अस्थायित्व से स्थायित्व की ओर।

स्पेन्सर के अनुसार विकास की प्रक्रिया इन अवस्थाओं द्वारा ही चलती है उसका कहना है कि सजातीय पदार्थ हमेशा एक सा नहीं रह सकता क्योंकि बाह्य परिस्थितियाँ उसके रूप में निरन्तर परिवर्तन करती रहती हैं। परिणामस्वरूप वे विजातीयता की ओर अग्रसर होते हैं। पृथ्वी पर्वत श्रेणियों, समुद्र, नक्षत्र आदि ने परिवर्तन और विकास की प्रक्रिया से गुजरकर स्वतंत्र रूप ग्रहण किया।

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विकास सिद्धान्त और राज्य

स्पेन्सर ने अपने विकास सिद्धान्त को समाज पर भी लागू किया है। उसका कहना है कि आदिकाल में समाज अविकसित था, लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति का विकास होता गया उसके साथ-साथ समाज का भी विकास होता गया। प्रारम्भ में समाज का स्वरूप सरल था उसमें कोई जटिलता नहीं थी, किन्तु जैसे-जैसे समाज का विकास होता गया। समाज जटिल होता चला गया।

स्पेन्सर ने विकासवादी सिद्धान्त के आधार पर राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों का निर्धारण किया है। उसका कहना है कि जब तक व्यक्ति अन्तिम या पूर्ण संतुलन तक नहीं पहुँच जाता तब तक शासन की आवश्यकता रहेगी। स्पेन्सर का कहना है कि पूर्ण संतुलन को प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि शासन की गतिविधियों के क्षेत्र को धीरे-धीरे कम कर दिया जाये और व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों के प्रयोग के क्षेत्र में वृद्धि की जाये। अर्थात् राज्य को व्यक्ति के कार्यों में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। राज्य का अधिक हस्तक्षेप प्राकृतिक नियमों और समाज के विकास में बाधक होगा। विकास अवरुद्ध हो जायेगा। वास्तव में स्पेन्सर का विकासवादी सिद्धान्त अन्ततः एक राज्य विहीन समाज की ओर से जाता है, जहाँ किसी भी प्रकार के शासन के लिए कोई स्थान नहीं है। स्पेन्सर के मत में राज्य शून्यता ही समाज की प्रगति की पराकाष्ठा है।

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