उदग्र अथवा शीर्ष गतिशीलता
सामाजिक गतिशीलता के दूसरे प्रमुख स्वरूप को हम उदय अथवा शीर्ष गतिशीलता कहते हैं। सोरोकिन के अनुसार, “उदग्र सामाजिक गतिशीलता का अर्थ किसी व्यक्ति अथवा सामाजिक तथ्य द्वारा एक स्थिति समूह से दूसरे स्थिति-समूह में संक्रमण करना है।”
इस प्रकार उदग्र गतिशीलता का रूप समतल गतिशीलता से बिल्कुल भिन्न है। समतल गतिशीलता के पिछले विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि इसके अन्तग्रत गतिशीलता के बाद भी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता, केवल स्थान अथवा सम्बन्ध बदल जाते हैं। इसके विपरीत, जैसा कि उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है, गतिशीलता को हम तभी ‘उदय’ कहते है जबकि इसके फलस्वरूप व्यक्ति की सामाजिक स्थिति भी बदल जाये। इसी आधार पर इलिएट और मैरिल ने उदग्र गतिशीलता को वर्गीय संरचना में ऊपर और नीचे की ओर होने वाला परिवर्तन कहा है।”
उदग्र गतिशीलता की दिशा के दृष्टिकोण से इसे दो भागों में विभाजित करके स्पष्ट किया जा सकता है
समाज में पाये जाने वाले स्तरीकरण की प्रकृति के आधार पर आर्थिक, राजनीतिक और व्यावसायिक गतिशीलता या तो ऊपर की ओर होती है अथवा नीचे की ओर। प्रथम स्थिति को हम आरोही कहते हैं और दूसरी को अवरोही गतिशीलता। आरोही उदय गतिशीलता भी प्रमुख रूप से दो प्रकार की होती है-प्रथम तो वह जिसमें उच्च स्थिति के समूह में जाने को विवश हो जाता है। दूसरी वह है जिसमें सम्पूर्ण समूह का पतन हो जाता है और उस समूह का सदस्य होने के नाते व्यक्ति की स्थिति पहले की तुलना में निम्न हो जाती है। पहली स्थिति की तुलना ऐसे व्यक्ति से की जा सकती है जो जहाज से समुद्र में गिर गया हो और दूसरी स्थिति स्वयं जहाज के डूबने से उत्पन्न स्थिति को स्पष्ट करती है।
वैयक्तिक कमियों के कारण किसी व्यक्ति का निम्न स्थिति में चले जाना अथवा वैयक्तिक क्षमताओं के कारण उच्च स्थिति प्राप्त कर लेना अपेक्षाकृत रूप से एक साधारण बात है जो हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई देती है, लेकिन अपने समूह की स्थिति को ही उच्च बना देना अथवा सम्पूर्ण समूह की स्थिति में ह्रास हो जाना एक महत्वपूर्ण विषय है जिसके बारे में सभी समाज सतर्क रहते हैं। इसके उपरांत भी प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी समय पर दोनों स्थितियाँ विद्यमान रहती हैं। इन दोनों परिस्थितियों को हम भारत के उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं।
साम्प्रदायिक तनाव के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए।
भारत में जाति-व्यवस्था के इतिहास से पता चलता है कि पिछले ढाई हजार वर्षों में ब्राह्मणों की स्थिति सदैव सर्वोच्च नहीं रही। आरम्भ में ब्राह्मणों की स्थिति जन्म की धारणा के कारण सर्वोच्च थी लेकिन क्षत्रिय अपने कार्य को अधिक महत्वपूर्ण मानने के कारण अपनी स्थिति को बराबर ऊंचा उठाने के लिए प्रयत्नशील रहे। बाद में जब जैन और बौद्ध धर्मों का प्रभाव बढ़ा तो व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उसके जन्म से नहीं बल्कि ‘कर्म’ से निर्धारित होने लगी। इसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण क्षत्रिय समूह की स्थिति उच्च हुई (आरोही उदग्र गतिशीलता) और संपूर्ण ब्राह्मण समूह की स्थिति में ह्रास हुआ (अवरोही उदग्र गतिशीलता)। इसके पश्चात् ब्राह्मणों ने अनेक संघर्षों के बाद और अनेक नयी सामाजिक नीतियों का निर्माण करके अपनी स्थिति को पुनः सुदृढ़ बना लिया जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण क्षत्रिय समूह की स्थिति में पुनः हास हुआ।” इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण समूह के आरोह अथवा अवरोह से उत्पन्न होने वाली सामाजिक गतिशीलता की प्रकृति उदग्र होती है।
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