योग का अर्थ बताते हुए परिभाषा स्पष्ट कीजिएं।

योग का अर्थ

मुख्यतः योग शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के युज धातु से हुई है, जिसका अर्थ है मिलाना या जोड़ना। अर्थात् योग एक ऐसी कला है जो जीवन को भली-भाँति समझकर उसे परम पिता परमात्मा से मिलाने का मार्ग बताती है। योग हमारे जीवन के सभी पहलुओं का विकास करता है। विद्वानों ने योग के अर्थ के सम्बन्ध में अनेक परिभाषाएँ लिखी है। उनमें से कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

  1. महर्षि पतंजलि के अनुसार, “मन की वृत्तियों को रोकना योग है अर्थात् चित्त की चंचलता का दमन ही योग है।”
  2. भगवत् गीता में भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार, “समत्वं योग उच्यते” अर्थात् परमात्मा याजीवात्मा के एकीकरण का नाम योग है। आगे उन्होंने कहा है-“योग कर्मस कौशलम्’ अर्थात् प्रत्येक कार्य को कुशलतापूर्वक सम्भव करना योग है।
  3. महात्मा याज्ञवल्क्य के अनुसार, “संयोग योग ‘इतयुक्तोजीवात्मः परमात्मनो’ अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के मिलने का नाम योग है।”
  4. योग भाष्य के अनुसार, “योगः समाधि स च सार्वभौमिचत्तस्य धर्मः’ अर्थात् योग समाधि को कहते हैं जो चित्त का सार्वभौम धर्म है।”
  5. स्वामी शिवानन्द सरस्वती के अनुसार, “योग उस साधना प्रणाली का नाम है जिसके द्वारा जीवात्मा तथा परमात्मा की एकाग्रता का अनुभव होता है एवं जीवात्मा तथा “परमात्मा के साथ ज्ञानपूर्वक संयोग होता है।”
  6. डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, “योग वह पुरातन पंथ है जो व्यक्ति को अन्धेरे से प्रकाश में लाता है।”
  7. योग वशिष्ट के अनुसार, “संसार सागर से पार होने की युक्ति को ही योग कहते हैं।” (8) योगी राम चरक के अनुसार, “हम सभी अनन्त शक्ति के स्वामी हैं और इस शक्ति के इस रहस्य से परिचित कराने की कला योग विज्ञान में निहित है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि योग एक ऐसा साधन है जो आत्मा को परमात्मा से मिलाने का मार्ग प्रशस्त करता है। योग करने से मन एकाग्र होता है तथा चिन की चंचलता नियन्त्रित रहती है। इसके द्वारा व्यक्ति पाप कर्म करने से बचता है तथा अपने मन को शुद्ध रखकर पुण्य कर्म करने की ओर कदम बढ़ाता है। योग एक ऐसा उच्च कोटि का साधन है जो व्यक्ति को ऐसी ऊर्जा प्रदान करता है जिसके बल पर व्यक्ति प्रत्येक कार्य कुशलतापूर्वक सम्पादित करने के लिए उद्यत हो जाता है। उसके पश्चात् उसके समक्ष एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति अनन्त शक्ति को प्राप्त कर लेता है। उसके पश्चात् उसके समक्ष एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति अनन्त शक्ति को प्राप्त कर लेता है। यह योग ही है जो व्यक्ति को जीवन को समझने का ज्ञान प्रदान करता है। इससे व्यक्ति को प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त होती है। यह कठिनाइयों पर हँसते हँसते विजय प्राप्त कर लेता है। योग के द्वारा व्यक्ति मनोयोग से कार्य करने की विधि ग्रहण करता है। और अन्त में वह मोक्ष प्राप्ति के लिए सफल साधन को प्राप्त कर लेता है।

योग केवल दार्शनिक तथा आध्यात्मिक पक्ष की और ही संकेत नहीं करता है वरन् वह शारीरिक तथा भौतिक पक्ष के विषय में भी हमें ज्ञान देता है। योग करने से शरीर दृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और सबल बनता है। इससे ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों में ऐसी क्षमता आ जाती है कि प्रत्येक कार्य सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। योग शरीर के भीतर पनपने वाले विकारों तथा दोषों को निकाल देता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति का मन पवित्र, हल्का-फुल्का और विषय-वासना रहित हो जाता है। उसके पश्चात् मन में व्यर्थ के विचारों के लिए स्थान नहीं रहता है। उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियाँ यही सोचती हैं जिससे सबका कल्याण होता है।

इस प्रकार योग एक ऐसा साधन है जिसको करने से व्यक्ति अपने जीवन को सुखी, सन्तोषी, एकाग्रचित वाला बनाकर दीर्घायु को प्राप्त कर सकता है। वह अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष अर्थात परमेश्वर से एकीकरण को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर सकता है।

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योग के लक्ष्य

योग के लक्ष्यों का अध्ययन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है जो निम्न है

  1. योग का प्रथम लक्ष्य है-शारीरिक अंग-प्रत्यंगों की वृद्धि तथा विकास का मार्ग प्रशस्त करना।
  2. योग करने से मानसिक शक्तियों को विकसित करने के उपयुक्त अवसर प्राप्त होते हैं।
  3. योग मानसिक बीमारियों जैसे भ्रम, तनाव, अशान्ति, अनिद्रा आदि को दूर करने में सहायता करता है।
  4. शारीरिक रोगों से मुक्ति दिलाना।
  5. संवेगात्मक रूप से मन को स्थिर करके उसे सबल बनाने में सहायता करना। बनाना।
  6. व्यक्ति के आचरण का सुधार करना तथा उसे नैतिक और चारित्रिक रूप से सबल
  7. इन्द्रियों पर कैसे नियन्त्रण किया जा सकता है. इस दिशा में मनुष्यों की सहायता करना।

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